गुरुवार, 4 नवंबर 2010

ek janewale ke aane ki ummed mein

गर ukhadti सासों की इज़ाज़त हो
तो ये रवायत भी निभा लेंगे हम
तुम्हारे सुर में भरके अपने पल
एक ग़ज़ल साथ साथ गा लेंगे हम

जो चला जायेगा वो साया अपना
खुदा के पास चुकेगा बकाया अपना
रहेंगे हम तो यहीं इस दर-ओ -दीवार तले
इस उम्र में नयी सोहबत कहाँ पालेंगे हम

न मायूस करना हमको अपने अश्कों से
नमक यादों का ऐसे खर्च करते हैं भला
अब न तकलीफ न रंजिश है कोई
अब बची उम्र बा आराम निकालेंगे हम .

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

khali

जायेगी ये रात भी जाया
जैसे खालीपन उड़ेल रहा है कोई खाली सी सुराही में
कोई बताता नहीं किताबों में
के कैसे खाली खाली जीते हैं

jhagde-1

इशारों में भी ख़ामोशी है
टीवी का remote पड़ा है सिरहाने में
चाय के प्याले कटघरे में खड़े है गवाहों की माफिक

आज की शाम की अदालत में
ये जिरह हाय नश्तर सी गुजरी है

सोमवार, 20 सितंबर 2010

shatranji

काला सफ़ेद
जैसा दिन
बनता जाये शतरंजी
ये शह वो मात
पापड़ sabzi दाल भात
tire में जमे पानी जैसा
सड़ता जाये शतरंजी

भूरा है सब
कैसे खेले
कौन बिछाये शतरंजी

untitled

सांस बुनते रहे थे काटों पे
धडकनों के दस्ताने
पूरे आते हैं उनके हाथों में

गुज़र जायेंगी सर्दियाँ एक दूजे के भरोसे

बुधवार, 11 अगस्त 2010

nightout-1

रुकी हुई सी रात का
अजीब कारोबार है
एक नींद का उधार था
एक नींद का उधार है

सड़क से दौड़ती हुई
बदहवास परछाइयां
ये खिड़की पे अक्स था कोई
या सपनों का गुबार है

न ढल रहा है न उग रहा
सूरज फंसा है कलेजे में
एक रात और सुबह के बीच
थका हुआ सा करार है

hum sabhi sadak hue

हम सभी सड़क हुए
बिछे हुए हैं पत्थरों पे
इंतज़ार में हैं
चलाओगे अपने बुलडोज़र
और जब हमारे चेहरे चिपके हुए ज़मीन पर लाल मिटटी में सने गलने लगेंगे
कब खोद डालोगे हमें हमारे पत्थरों के साथ
चीर कर हमारी माटी का सीना, निकाल कर हमारी हड्डियों से इस्पात
अपनी फैक्ट्री में डाल कर गलाओगे

हम सभी सड़क हुए
बिछे हुए हैं पत्थरों पर
इंतज़ार में हैं
कब हमारे भीतर से
बिछाओगे बारूद की चादरें
कब हमारी फसलें जलेंगी
पुश्तें गलेंगी तुम्हारी ideological भट्टीओं में

तुम गुज़र जाओगे
तुम्हारा भी वक़्त आएगा
और तुम भी गुज़र जाओगे
गुज़रती सर्दियों में

हम सड़क हैं
हम गुज़रा नहीं करते
आदिम हैं हम
मिटटी की ज़ात के
हम बदला नहीं karte

शनिवार, 12 जून 2010

on bhopal ruling

किसी ने ठोका होता ट्रक  से
या पुल से दे दिया होता धक्का
तो बढ़ा भी सकते थे

अब इस मामले में तो  जितना बनता था दे दिया
दो साल

२५०००,
२५ साल
३ नस्लें सड़ गयी तेरे बुचडखाने में
ज़हर बेचने वालों के दल्लों ने फिर एक बार
थूक डाला है हमारे अधजले चेहरों पर

और खोलो कसाई खाने
बोटी बोटी काट कर हमारी रख दो गिरवी
हमारी सांस जला डालो अपने तेज़ाब से

गलती हो गयी इस बार जो आये दुनिया में
अगली बार इस नरक में जनम न लेंगे हम

शुक्रवार, 28 मई 2010

for mom

टुकड़ों में याद रखता हूँ चेहरा तेरा
किफ़ायत से खर्च करता हूँ वो सारे पल
इतनी ही है जो भी जमा पूँजी है
इतने बरसों जो जिए जाना है

मिलेंगे फिर कभी तो बैठकर  सिखाना  मुझे
कि कैसे काटी थी जिंदगी तुमने टुकड़ों  में 
एक नज़र गिरफ्तार
दूर तक खेच कर लाये थे तुम
गीली नज़र पंखे के नीचे रख दी है
बाहर बारिश थमती ही नहीं
न जाने आसमा से किसकी नज़र बरसती है

गड़ती है कभी तेज़ चकाचौंध आतिशी बन कर
कभी बेबाक सी फट पड़ती है सौ फुहार लिए 

कब से ये बेमौसम आशिकी
तुम्हारी आखों के कोनों से हंसती है

रविवार, 23 मई 2010

Ashish bhai ko samarpit

( Ashish Mandloi was a senior activist with Narmada Bachao Andolan and had been the face of movement in Nimad and other places facing acute submergence and loss of livelihood due to the project. I had the pleasure of working with him during 2004-2007.he passed away last friday )

उठती नहीं आवाज़ कोई
डर की सिसकारी भी नहीं
रुक रुक के गिर जाती है हरसू
सांस भारी भी नहीं

एक लय सी सुबह उठ गयी
एक भैरवी सी बह चली
जब तुम चले बातें चली
सुबहें चली रातें चली
मनिबेली के कसबे चले
बडवानी की राहें चली
दिल्ली चले हर ओर से
टूटे दिलों के पोर से
उठा के कोई न फ़ेंक दे
लाठी वकील के जोर से..

तुम लड़ चले
उन हजारों बेघरों के वास्ते
तुम लड़ चले
खोले जहाँ बरसो थके थे रास्ते
तुम लड़ चले
जब हर हार से जीत का रास्ता खुला
तुम जल चले
जब भी अँधेरा रात से गहरा हुआ

संघर्ष जी कर तुम चले
संघर्ष न होगा ख़तम
आशीष मंडलोई आगे बढ़ो
लड़ेंगे हम जीतेंगे हम

शुक्रवार, 7 मई 2010

ab mujhe koi intzaar kahan (misra gulzaar sahab ki izazat se)

ढल के छूट गया जब तुम्हारे साए से
रेत ही रेत हूँ मैं
मुन्तजिर एक आंधी का

तुम्हारे पैरों के निशान बचा के रक्खे हैं
बहारें भी तो यहाँ आँधियों सी चलती है
न जाने किस बहार में उखड चलूँ अगले दर तक

पिरो के आदतें पहन ली जिन्दगी गले में
फिरा के इनको जपता रहूँगा नाम तेरा

वो जो बहते थे आबशार कहाँ
अब मुझे कोई इंतज़ार कहाँ
गारत पड़े इस बेमुर्रवत से दिन को
गुज़र गया जैसे कि कभी आया ही न हो

खिंची पड़ी है ये रात लकीर जैसी  हम दोनों के बीच
गुज़रे कोई इस लकीर से तो गुज़र जाए ये रात भी

कभू आया नहीं ख्याल के जगे रह गए थे हम
उम्रें बसर हो गयी इस न ढलती सी रात में

गुज़र गया जैसे कभी आया ही न हो
उस पार लेटा है लकीर के जो
बारहा अपना साया ही न हो

बुधवार, 5 मई 2010

रात के इस छोर से उस छोर तक लम्बी
सूखती साडी तुम्हारी
कूदती हैं मछलियाँ गाते हैं मेंढक
कल इस्तरी की मेज़ पर चला कर एक तपता लोहा
ख़त्म कर डालोगे एक रात का तिलस्म तुम

गायेगा कौन फिर सूखते हुए छत पे

mandir ke saamne

पिछले दस साल में
ख़त्म हो गए सारे लोग
धीरे धीरे धुआं पीते
किश्तों में जीते
बोलो गोविन्द
गोविन्द देता है कैंसर
दर्द के हलाहल की wholesale agency का ठेकेदार
तय किया था हमने
हम एक दूसरे के रास्ते नहीं आयेगे
मगर हलाहल के ऊपर के wrapper का आकर्षण 
और उसकी न जाने वाली लत
सबको राखे गोविन्द
वोही पिलावे वोही जिलावे
अजीब गैरजिम्मेदार सिस्टम है यार तुम्हारा..
और मेरी मजबूरी है हर दिन
तुम्हारी ड्योढ़ी पे सलाम ठोक कर गुज़ारना
क्या हिसाब बैठाये हम अपने बीच
तुम भी जिओ हम भी जियें
बोलो गोविन्द

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

yayavar

फिर बावरे
फिर फिर फिरे
किसकी मडैया ठौर काटेगा रे साले बावरे

उठ गर्द है
उड़ जा कहीं
दुनिया किसी के बाप की जागीर तो ठहरी नहीं

दर दर भटक
घर घर फटक
दरिया बना के भेजा है , बरसात है बह चल कहीं

मस्ती का पुर्जा जिस्म है
दुनिया है टुकड़ा रूह का
चलता फिरे जलता फिरे तकदीर तेरी बस यही

गाता रहा कर बावरे
सोया हुआ ये गाँव है
लगता है मन मेरा के तू आता रहा कर बावरे


---------आनंद झा २०१०--------------------------

untitled

इंतज़ार दबे पांव लौट आया है
बेसबर रात उठ उठ के लौट आती है

अब के जाओ तो बताकर जाना
फ़िक्र से नींद नहीं आती है

बरसते हैं रात भर ज़मीं पे टूटते सैयारे
राख सपनों के पेट में छुपकर

दहकते रहते हैं कुछ बददिमाग अंगारे

थपकियाँ दे के सुलाकर जाना
अब के जाओ तो बताकर जाना

------------आनंद झा २०१०------------

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

on nba's victory over maheswar dam

हर आवाज़ की नोक में हमने
ज़हर लगा कर रक्खा है
जाने किस कागज़ में तुमने
सुबह दबा कर रक्खा है

सरकार बने फिरते हो तुम
हमारे घर के जंगल के
उखाड़ के हमको मिटटी से
concrete में रोपते रहते हो

तुम होते कौन हो #########
किस्मत जो हमारी लिखते हो
दिल्ली में अपनी कुर्सी पे
जाने कितने हाथों बिकते हो

देखेगे तुम्हारा ताब ओ ज़हर
हम देखेंगे दुनिया देखेगी
रुक जाओ कुछ ही बरसों में
गद्दी से उठाकर फेंकेगी

ghar se bhage hue bacche-2 (alok dhanwa ke naam)

कबाडखाना शहर
छोड़ शहर भाग आया
जंग लगे कबाड़ फेफड़ों में फूंकता हूँ दम
खड खड़ा ती हैं सासें
सम्हलती रूकती हैं

एक नयी आदत लगी है जीने की
रंग दिखते हैं
आवाज़ के पर दिखते हैं
चेहरे छील के पहचाने हुए घर दिखते हैं

अब नहीं उठते हैं चौंककर  डरकर
सपने पुरसुकून बहते हैं मेरी नींदों में.

आनंद झा 2010

ghar se bhage hue bacche-1 (alok dhanwa ke naam)

टकरा कर लौट आती हैं उनकी रूहें
एक बेचैन समंदर जैसे पल दो पल
फेंकता रहता है सैलाब किनारे की तरफ

अपनी आवाज़ शहर में
मुहाफ़िज़ की तरह सुनकर
अपनी आखों में भर के concrete के मोतियाबिंद
बड़े होने की तैयारी में
जुट जाते हैं बच्चे

घर से भागे हुए बच्चे
डर कर उठ जाते हैं
कच्ची नींद में जागे हुए बच्चे

बुधवार, 31 मार्च 2010

mushkil

मान लेते हैं अ के सानी ४
मान लेते हैं बी के सानी ६
जोड़ दो अलफ़ाज़ तो क्या बनता है
जनाब १० का आकडा बनता है
अलफ़ाज़ जोड़ते हैं आकडे बन जाते हैं

आजकल बहुत से #### 
कलम की taxi चलाते हैं

मान लो मानी में क्या जाता है
गोया न भी मानो तो दुनिया मानेगी
आकड़ों की शैदाई है दुनिया
दिल की सियाही बेकार खाली जाएगी

सोच रहा हूँ के बेच डालूँ ये कलम
जला कर बहा दूं दरिया में ये सारे सुखन
घोट डालूँ गला इस दिल की समझदारी का
हो जाऊं शामिल फिर गधों की बस्ती में

बस एक और सामना इस भीड़ के साथ
अबकी हारा जो ये जंग तो मर जाऊंगा .

epitaph

कटी कलाई
बहा समुन्दर
किधर का किस्सा
किधर चलेगा

लाद चला था
सारी दुनिया
रिश्ते नाते
और सन्नाटे
जहाँ चलाये उसका मौला
उधर चला था
उधर चलेगा

सब कुछ देखा
फिर कुछ जाना
की मुहब्बत किया बहाना
निचोड़ी रातों से नींद सारी
गुज़र गया एक और ज़माना
 न पूछो उससे खुदा के बन्दे
हुआ है बरसों से वो दीवाना
आनी जानी दुनिया सारी
लगा रहेगा आना जाना
 सफ़र तो बस दिल का  तय था
उधर से ही रास्ता खुलेगा

अगले मोड़ कब्र है उसकी
उधर ठिकाना वही मिलेगा
----------२०१०--आनंद झा ------

सोमवार, 22 मार्च 2010

faiz ahmed faiz ke naam

बेतकल्लुफी का हुनर तुमसे सीखे
कोई पूछे किधर की हांकोगे इस बार
किस दरीचे किस कूचे जा बैठोगे
किसकी आखों से झांकोगे इस बार

किसका हाथ थाम ऐलाने जंग छेड़ोगे
किस का तख़्त ओ ताज उछालोगे इस बार
तुम्हारी आवाज़ तरकश ऐ इंकलाबी है
किस सितमगर का ज़ोर निकालोगे इस बार

न पैदा हुआ था मैं जब तुम खुदागंज चले
एक दौर ने आफ्सान' तुम पे वारे हैं
ज़ज्बा देते हैं लिखने का और लड़ने का
ये जो सारे सुखन' तुम्हारे हैं

paani -1

भरा समंदर
गोपीचंदर
बोल मेरी मछली कितना पानी
गल गल के आखों से बह गया
डूब के देखा इतना पानी

 उबाला सूरज
धोये किस्से
रात सी काली
दिन की कहानी

चले किधर अब
किधर मिलेगा
हँसता दरिया
गाता पानी

मंगलवार, 9 मार्च 2010

आखों में लग के छूट गया
दाल के तडके की तरह

जब कह दी तूने फिर से
जाने वाली बात
---आनंद झा---२००४--

aawara muhabbaton ke naam-2

न तमन्ना-ओ-सुर सजाओ
न कोई जवाब दो
मुझे रात भर सुलाओ
मुझे एक ख्वाब दो
मुझे बोल दो के माजी
मेरा इंतज़ार है
मुझे एक रात रोको
मुझे माहताब दो

न सुकून रहा
न ज़मीन रही
कि ख्याल है या खुमार है

मुझे हर गली सजाओ मुझे हर बहाव दो
--------------आनंद झा---२००३---

aawara muhabbaton ke naam

रुक कर फिसलती बात पर
एक शाम का ईमान है
हथेली पे रक्खी लकीरों पे
तेरी उँगलियों के निशान है

क्या वफ़ा क्या उसके उसूल हैं
न सुना न पढ़ा मैंने कभी
पढता हूँ तेरी याद मैं
तू ही मेरी अजान है

बढ़ता हूँ हिस्सा जो तोड़कर
उससे जुड़ा सा रह गया
सीने से निकला था उस घडी
उड़ता धुआं सा रह गया
----आनंद झा----२००९---

bol jamoore

खोज उसे
जो चुप बैठा है बीच तुम्हारे
जो उगता उगता गल जाता है साँझ सकारे
चल ढूंढ अठन्नी आँख की कन्नी
कूल किनारे ढूंढ
बूझ पहाडा अट्ठारह का
खोज बहारें ढूंढ

खोज उसे
कर गीली गीली पाशा
खोज मदीना ढूंढ
भरी दुपहरी सी दुनिया में
एक दिन जीना ढूंढ

आँख मिली देखा क्या तुमने
ख्वाब रहा न ख्वाब
दुनिया बनी बना ये झंझट
क्या सच क्या है ख्वाब

चलती रहे ये गाड़ी तेरी
ख्वाब कमीना ढूंढ

खोज उसे

---------आनंद झा---२००४-----

ahmakana sa kuch

मुझे क्या
मैं तोह रहगुज़र का हूँ
मुझे क्या
मैं तो बे उम्र सा हूँ
मुझे क्या
मैं तो ठहर जाऊं भी
ओढ़ कर एक कफ़न मर जाऊं भी

मुझे क्या, मैं तो सोता हूँ सूरज के साथ
होती है रात तो रोता हूँ सूरज के साथ

मुझे क्या मैं तो रहगुज़र का हूँ
मुझे क्या मैं तो बे उम्र सा हूँ

---------आनंद झा----२००५-----
तेरी झोली में डाल दी दुनिया अपनी
तेरे  आँचल में फैल गया रंगों कि तरह

आज खुद का श्राद्ध कर दिया मैंने
अब चाहे जहाँ भी ले जाओ

labzishein

तुम्हारी मर्ज़ी है बात चुन लो
एक शाम कि मुलाकात चुन लो

खबर वोही है जो टूटती है
और तहों पर बैठती है
जो धूल उडती है खिडकियों पर
वही दुहरायी सी रात चुन लो

सवाल है सब सवाल क्या हैं
क्यों है जो कुछ भी दरमियाँ है
पता है तुमको मुझे पता है
कोई अटपटा जवाब चुन लो

बेमतलब के मायने हैं
जहाँ ही सारा बस यूँ बना है
देखो घूमो दौड़ लगा कर
एक ठहरी सी कायानत चुन लो

मन है खुदा खुद उसी से पूछो
उसे पता है तुम्हे नहीं है
जो है जेहन में तुम्हारा हिस्सा
वो सब यहाँ पर है, यहीं है
करो तिजारत , नमाज़ चुन लो
तुम्हारी मर्ज़ी है बात चुन लो

---------आनंद झा २००९------------

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

girgit

कि जब मिले हैं सड़कों पर
मेरे चेहरे में बीते हुए कल के टुकड़े
मैं सोचता हूँ अजनबी हो जायेगा
आते हुए कल में मेरा चेहरा

हम अपने अन्दर कितने लोग रखते हैं
अपनी variable सी history के बुकमार्क
रास्ते बदलते हैं हम बदलते हैं
फिर उन्ही रास्तों पर चलते हैं

कुछ न कहना भी एक वादा है
कि जब मिलो खुद से तो बे गिला मिलना
जब भी आये कभी दिल खुद पे
तो वजह बेवजह बेपनाह मिलना

अपने आगे है , अपने पीछे है
बाँध रक्खा है तिलस्म दुनिया का
जिंदगी तुमको खुद पता भी नहीं
तुमने क्या क्या रंग बदले हैं

----------आनंद झा २००८-----------

yaadein

उछाला है दूर तक
यादों का गठ्हर
पत्थर ही हो गया था
लुढ़क जायेगा कहीं

अब कोई क्या करे
लेकर कहाँ फिरे
यादों के साथ क्या कहीं
जीते हैं जिंदगी

अपनी कहानी तापकर
काटी हैं सर्दियाँ
रोटी के साथ खायी हैं
यादों की चाशनी

-------------आनंद झा २००९---------

bakaaya

मुझपर गुज़र हुई पिछली रातें
धूल की तरह जमी पिछली रातें
रजिस्टर में दर्ज कर दी हैं
कोरे कागज़ पे अनकही पिछली रातें

जो गुज़ारा है या जो गुज़रा है
जो उतारा है या जो उतरा है
खोल कर रख दिया है छतरी सा
कल भीग कर जो भी बिखरा है

मुझे यकी है मैं समेट लूँगा ये
डाल संदूक में उठाकर सर पे
निकल जाऊंगा कहीं ये सभी
मुझपर गुज़र हुई हैं जो पिछली रातें

----------------------आनंद झा  २००४---------------

muntzir

आँचल सा फ़ैल जाता है घर
इंतज़ार में
आयेंगे वो के उनका करम है
बहार में

हर शह में एक लम्हा है
सिलवट में रात है
आता नहीं करार
दिल ऐ बेकरार में

जायेंगे वो सनद है
कुछ ही दिनों के बाद
आता है जैसे दम
और दिन उड़ते गुबार में

चौखट को हमारे भी
हो जायेगा यकीं
दिन इसने भी गिन रखे हैं
इसी ऐतबार में


mukammil

बह के देखा
अपने साथ देखो
कहाँ कहाँ की मिटटी समेट कर लाया

एक दिन कूचे में नज़र बैठी
अपनी ही कहानी खरीद कर लाया

धूप में अपनी छाव में बैठा
ठंढ और गर्म की पहुच से बाहर
मैं कल ही अपने घर आया

हरा दिया मुझको मेरी ज़रूरतों ने
वाहियात मतलबों का सच पाया

---------आनंद झा -----2007

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

आगाज़

मुझको एक नज़्म की तरह रखना
करो जो याद तो मरहबा कहा करना