कबाडखाना शहर
छोड़ शहर भाग आया
जंग लगे कबाड़ फेफड़ों में फूंकता हूँ दम
खड खड़ा ती हैं सासें
सम्हलती रूकती हैं
एक नयी आदत लगी है जीने की
रंग दिखते हैं
आवाज़ के पर दिखते हैं
चेहरे छील के पहचाने हुए घर दिखते हैं
अब नहीं उठते हैं चौंककर डरकर
सपने पुरसुकून बहते हैं मेरी नींदों में.
आनंद झा 2010
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