शुक्रवार, 25 जुलाई 2014

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कुछ दिनों के बाद शायद
कुछ दिनों के पार शायद
इस धुंधलके के लिए
इतना भरोसा बस रहा

रात सूखी धूप से जल जल कर
सूखी रेत पर
आँखों में जो भर लिया था
उतना दरिया बस रहा

ये भी कट  जाएगी
खुद के लिए जो की मुक़र्रर
नींद से लड़ते लड़ते सुबह तक
तेरा चर्चा बस रहा



halaaton ke beech

ज़ुम्बिशों  के तहखाने में
एक हरारत तेरी रक्खी थी
आज  लगा यूँ
धूल झाड़  कर
छू  लूँ तुझको
जैसे पहली बार छुआ था

इन मौसमों में
मुहब्बत छुपा कर रखते हैं
ज़बान दबा कर रखते हैं 
दिल रखते हैं तहखानों में
सीने  में  सब्ज़ बहारों की राख रखते हैं

आहिस्ता आहिस्ता
बुझने के लिए