मंगलवार, 26 सितंबर 2017

muhabbat-6

कितनी एक तरफ़ा मुहब्बतों की
कब्रगाह हूँ मैं
और ऐसी कितनी कब्रगाहों में हूँ मैं दफ़न

काश एक शाल में लिपटे होते
अपनी आरज़ूओं के हाथ थामे
एक सब्ज़ दरख़्त के नीचे
ओढ़ कर पश्मीने का कफ़न

इश्क़ में तड़पा करो तुम सारी जनम
मेरे अश्कों की प्यास लेकर अपने होठों पर
मेरे आवारा मुहब्बतों में गिरफ्तार रकीब
मेरी दुआ लो
जाओ ऐश करो 

khat

ये वो जगह है
जहाँ से
चुप्पी और चुप्पी
के बीच
बहती हुई एक नदी है

आवाज़ के बाहर
अलफ़ाज़ के बाहर
सांस और छुअन की यातनाएं हैं
देखना और देखा जाना है
चलना है बगल -बगल
खाना है
खुशबू है
और अनगिनत
भाषाएं रची बसी हैं

कर दो दस्तखत
इस चुप्पी की वादी में
निगाहों से
चुप चाप
सरका दो एक लिफाफा मेरी तरफ

तुम वो लिख दो जो तुम लिखना चाहो
मैं वो पढ़ लू जो मैं पढ़ना चाहूँ



शुक्रवार, 8 सितंबर 2017

muhabbat -5

एक बेचैन सी चुप्पी के दोनों तरफ
हमारी अपनी अपनी कयनातें हैं
तुम्हारे पास हैं सैलाब सवालों के कई
मेरे पास गए दिन की वारदातें हैं

ज़ाया किये गए कई महफिलों के प्याले हैं
अनपढ़ी चिट्ठियां है ख्यालों के पुलिंदों में दफ़न
दिल एक टूटे light house सा जज़्बातों के समंदर पर
ओढ़ कर बैठा है हज़ार सन्नाटों का कफ़न

आओ शराब पिएं आहटों के साये में
हर इंसान एक मुक्कमिल होता ख्वाब नहीं
वो हकीकत है ज़मीन है आइना है
एक बेचैन सी चुप्पी का जवाब नहीं


सोमवार, 4 सितंबर 2017

Dilli-1

इस शहर में अफसानों का धुआं
अब भी है
इमारतों के बीच फंसा आसमां
अब भी है 

शुक्रवार, 1 सितंबर 2017

-

हर नयी रात का
कायदा है
कुछ भूल जाना

फिर मिलना अगली सुबह से
याददाश्त के उसी चौखट पर
जहाँ न जाने की
हज़ार मिन्नतें की थी

ख़राब होता है वक़्त के साथ
आदमी पुर्ज़ा है
जंग खाता है
याददाश्त की चट्टानों से रोज़ घिसकर
टूट जाता है

गुरुवार, 13 जुलाई 2017

-

रोज़ लड़ता हूँ
रोज़ थकता हूँ
रोज़ अपने गुस्से से कहता हूँ
बस
कुछ और रोज़
इसके बाद एक नयी सुबह
एक मुक्कमल आज़ाद फलक
और रोज़
मेरा गुस्सा
कहता है
देख
इस झूठ के बाहर
का सच


शुक्रवार, 30 जून 2017

Ba-har- haal

वो मिल गया 
वो खयाल था 
वो नहीं रहा 
ये मलाल था 

वो ख्वाबों का मेरा गुलमोहर 
उसे छोड़ घूमा कई शहर 
जब थक गया 
तब रुक गया 
उस छाँव में 
जो सराब था 

ये गुरेज़ का एक तिलस्म था 
जो उगता था मुझसे बाहर 
अपनी जड़ें 
गहरी डालता 
मेरे अंदर 
मैं अपने डरों की मिटटी हूँ 


मैं कैसा हूँ 
ये जवाब था 

रविवार, 11 जून 2017

-

कितना जिया ?
ये सवाल पूछा है खुद से कई दफा
जवाब
कैसे जिया की मार्फ़त आता है
अब कभी पूछता हूँ
क्या है पहचान मेरी
मेरी मजबूरियों के अलावा

एक दफा
सबको बता रखा था सपनों के बारे में
कुछ हंस कर कुछ डर कर

वो गुम हो गया शायद
सपने सुनाने वाला
इस जंगल सी फैली दुनिया में

इस उम्मीद से लिखता हूँ ख़त
कभी कभी उसको
एक बड़े पेड़ के तले
हम दोनों किसी सुबह
ज़िक्र छेड़ेंगे उन्ही सपनों का


वो देखती  भी नहीं
मैं दरिया सा बहा जाता हूँ
वो किनारे पे खड़ी
दिन को शाम करती है

उसकी बातें दिए सी जलती रहती हैं
बारिश में गूंजते हैं झींगुर
मैं किताब के पन्नों में
उसकी शक्ल डाल कर बैठा हूँ

दुनिया हर रोज़
फ़र्क़ बढ़ा देती है
हौसले मिटा देती है

मुहब्बतें मेरी बैरंग चिट्ठियों की तरह
घूम कर मेरे सिरहाने आती है
कहानियां सुनती है
 सुबह के धुंधलके में
कहीं दूर निकल जाती है 

सोमवार, 1 मई 2017

aawaz

बागों की निगरानी में
फूल छोड़े हैं

फ़लक तक तैर के जाएँ
ये ख्वाब थोड़े हैं

एक बोतल में डाल दो चिट्ठी
ये दरिया जाने किससे जोड़े है 

be-watan

खामोश ज़मीनों में
नमी कुरेद दे कोई
बंजर लोग अपने दिल का धुआं
फूंक चुके हैं

तकते एक दूसरे को
रात के टूटे तारे
कई उदास घरों का आसमान
फूंक चुके हैं

किधर का रुख देखें
जब बियाबान हो
अपना चेहरा
किससे दरयाफ्त करें
सपनों के मलबों के तले

कोई ज़मीन नहीं होता है
वतन होना
जब वज़ूद हो अपना
कोई कफ़न होना 

शनिवार, 4 मार्च 2017

-

खुशबू सा देखा जाना 
ऐसे जैसे धुंध पहाड़ों की 
खिंच गयी हो 
उन दो आँखों के बीच 
और ताबीर हुआ हो एक अनकहा ख्वाब 
उसी  लम्हा 

मैंने सुना था पहली बार 
उस दरिया का शोर 
जो तुमसे होकर आया है 
मेरी जानिब तक