शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

itivrit4

चलते रहना है बे मकाँ होना  
ठौर पल का है 

वक़्त की फिसलन पर
पंचर पड़ी रातों में घुसकर
उन्मुक्त बहेगा मेरी वीणा का स्वर 

मिल जाना है लापता होना
चलते रहना है बे मकाँ होना 
 
मैं स्वयंभू 
निर्वात में मसनद लगा कर 
हांकता हूँ 
अपने बे लगाम घोड़ों को

इस रात फलक के दरवाजे पर 
नींद ओढ़ कर 
बेहिसाब सपने देखूंगा