गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

nightmare

ठंड में बौकती
पत्थरों पर अपने बूट पटकती
एक रात गुस्से में दारु पी कर
मेरे दरवाज़े पर बेहद शोर करती है

बारिश है
घर पर छत  नहीं है
बस दीवारें हैं
जो एक दूसरे  से टेक लगाये खड़ी हैं 

एक बच्चा है
बिन माँ बिन बाप
एक अकेली बस्ती है
और एक डर  है
जो दरवाज़ा भी है
और कैद भी

और बूंदों के साथ गिरती आहटें हैं 

मंगलवार, 30 अक्तूबर 2012

benami

क्या होता है
अपने नाम का पराया हो जाना
उसे दे देना किसी जुड़वाँ को
या दरवाज़े पर name plate पे अटका देना
कचरे की थैली में रख के , दरवाज़े के बाहर छोड़ देना
या किसी बोर्डिंग में पढने भेज देना और साल में एक बार मिलना

इस पहचान की दूकान पे लगा हूँ मैं
जब तक कुछ पैसे जमा हो जाएँ
बेनाम मुल्कों के सफ़र के लिए

कहीं देखो तो कंधे पे हाथ रख देना
पूछना " अबे  कैसे हो यार "
और हो सके तो याद रखना मुझे
मेरे नाम के  बगैर

शनिवार, 20 अक्तूबर 2012

क्या लिखूं  तुमपर
मुझे नहीं पसंद की मैं अल्फाजों में तुम्हें याद रखूं 
ये कब्रिस्तान है 
यहाँ मुर्दे गाड़े जाते हैं 
अशारों के ताबूत में लपेटकर 

मुझे तुम्हें देखना पसंद है 
इस हद तक 
कि मैं कह सकूं तुमने कल बाल बांधे थे 
और लपेटी थी एक फिरोजी शाल 
और काफी हड़बड़ी में थे 

मुझे टहलना पसंद है तुम्हारे साथ 
चुप रहकर बाँटना एक कोहरे में डूबा हुआ रास्ता 
मुझे ये पसंद है की मैं तुम्हें नाराज़ करू , झगडा करूँ और फिर तुम मुझे पास बिठाकर समझाओ 
मुझ पे चिल्लाओ 
मुझे तुम्हारी प्लेट से ज़यादा खाना पसंद है 

मुझे तुम्हारे साथ जीना पसंद है 
तुम्हें सुनना पसंद है 
तुम्हें याद करना पसंद नहीं 

मुझे तुम्हारे साथ खो जाना पसंद है 
और फिर एक लम्बी तलाश के बाद मिल जाना 
और फिर पूरी रात गपियाना 

मुझे तुम्हारा खोना पसंद नहीं 
तुमपे लिखना पसंद नहीं 
ये कागज़ी खोखलापन 
और उसमें तुमको उकेरना पसंद नहीं 

सोमवार, 17 सितंबर 2012

निहाँ है  तेरे सागर में
मेरे  सुकून के पल-छिन
एक पैमाने जितनी जिंदगानी में
पूछते हो क्या पाया मैंने

साकी हूँ किसकी महफ़िल का
किसके लबों पर कब चस्प हुआ
एक अर्से की ख़ुमारी का सुदोज़ियाँ
बचाया गवाया क्या मैंने

एक रात कटी हैं आखों में
एक नींद है अपने रस्ते पर
बादाख्वारी में कुछ तो सच निकला
वगरना बताया क्या मैंने

गुरुवार, 30 अगस्त 2012

-

रात ले जाती है सबकुछ
एक सवेरे के सिवा
देकर धूप की बस एक कनी, एक चिंगारी आँखों में
कुछ भी बतलाती नहीं है
एक चेहरे के सिवा



सोमवार, 13 अगस्त 2012

Albert Camus ke liye

बिन्दुओं के बीच ही
बनती हैं रेखाएं
परिधि , त्रिकोण

और जैसे भी आप घूमना चाहें
इस सपाट सतह पर
जिससे भी टकराना चाहें
जिससे भी जुड़ जाना चाहें
जिधर भी रुक जाना चाहें

एक आखिर का बिंदु
जो बैठा है समय के उस तरफ
तालियाँ बजाता है
परदे गिराता है
और आपकी खींची गई
geometry दीवार पर टांग कर चला जाता है

prem aur anya mithak 2

और उसके ग़म हैं
किस्सों जैसे
ग़म के मज़े आ जाते हैं

चीखें हैं लोरी जैसी
हम सुन कर के सो जाते हैं

उसका बदन रोटी का टुकड़ा
खा कर भूख मिटाते हैं

वो होता हैं
खेला करते हैं हम उससे
फिर मोड़ कर उसे रख देते हैं किसी टोकरी में
यही तो चाहते हैं न हम

उससे जिसे हम चाहते हैं 

शुक्रवार, 29 जून 2012

kinare

तुमसे प्यार करते करते
डर सा जाता हूँ
अलग होकर तुम्हारे साथ साथ
नहीं चल पाता
अनचीन्ही पगडंडियों में

फासलों के जन्मे हुए हैं
अगले सारे दिन
उन सभी दूरियों का विस्तार
नदी के दो सिरों सा

शांत
बस ताकता हुआ
जड़
अपने और तुम्हारे बीच
वक़्त के बहाव की कल्कलें सुनता

अपने डर को अपने गले में बांधे
उसके साथ जीता हुआ
अपने समय का इंतज़ार करता

मेरे ममेतर
दूसरे छोर पर तुम खड़े हो
और मैं तय नहीं कर पाता
एक नदी का विस्तार
जो निर्बाध बह रही है
हमारे बीच सदियों से  

सोमवार, 18 जून 2012

ped

हाथ अपने भींच कर
खुद का गट्ठर बना कर
सर झुका कर
वध्य
ठिठुरता बारिश की ठंड  में

कीचड सा मैं
सड़क के किनारे
घर जाने से डरता हूँ

धंस जाना चाहता हूँ
मिटटी में
और गड़ा रहना चाहता हूँ
पेड़ की तरह
अपनी जडें फैलाते - समेटते

भीगता सूखता गलता सड़ता
अपनी जगह पर स्थिर
इंतज़ार में
कि कोई आये
कुल्हाड़ी से मेरे सौ टुकड़े कर डाले
फिर सुखा डाले नमी की हर बूँद
धुआं बन सुलगा करे हर टुकड़ा मेरा फिर
ठंड से लड़ते हुए ......



सोमवार, 30 अप्रैल 2012

shehrana

चाक दामन परेशां सी
मजलूम आवाजें 
नींद से पहले 
अपने सीने से आती लगती हैं 

खुद के कानों पे देता हूँ थपकियाँ 
पंखे से कहता हूँ आज रात सुला दे लोरी देकर 
कल रात तक कुछ इंतज़ाम कर लेंगे 
नीद से कब तक रस्म ओ राह न हो 

क्या बताऊँ कौन नामुराद मेरे अन्दर छिप कर 
चीखता रहता है अँधेरे सन्नाटों में 
--------------------------------------------------------

सच के टूटे टूटे टुकड़े 
तलवों पे चुभ जायेंगे 

फर्श पे धब्बे हैं सिसकियों के कई 

साफ़ नहीं करते हो अपना कमरा 
---------------------------------------------------------
रेंग के कल तक जायें कैसे 
कितनी दूर सुबह है अपनी 

कितने पास अँधेरे अपने 

बुधवार, 25 अप्रैल 2012

-

वाजिब है कि तुम न पहचानो मुझे 
मैं शक्ल से भीड़ जैसा दिखता हूँ 

वाजिब है आवाजें न दो न बुलाओ 
मैं हवाओं से अब गुफ्तगू  कहाँ करता हूँ 

ये भी वाजिब है छोड़ दो तनहा मुझको 
मैं जिन्दगी के बहाने कहाँ ढूँढा करता हूँ 

मैं सफ़र याफ्ता हूँ मुन्तजिर नहीं मंजिलों का
ये भी वाजिब है इंतज़ार न करो तुम मेरा

मगर मैं डरता हूँ दूरियों से बहुत
ये डर मुझ अकेले का तो नहीं 

-

आये हैं अलफ़ाज़ तेरे लबों पर 
दुआ जैसे रफ्ता रफ्ता क़ुबूल होती है 

एक हलकी सी जुम्बिश और एक आवाज़ बिखर जाती है 
अपने पलकों के कालीन पे समेट लेता हूँ उनको 
मैंने अपने अश्कों में तेरे सवाल पिरो रक्खे हैं 

उन्ही बंद आखों से शुरू करें 
आधी बातों के पूरे अफ़साने 
तुम्हे पता भी न हो शायद 
मैं तुमसे कितनी बातें करता हूँ 

फाख्ता हो जायेंगी ये यादें कभी 
रोमांस बूढी कहानियों सा हो जायेगा 
पर आवाजें जब थामा करेंगी मुझको 
अपने लबों का लोबान जला कर 
बुलाया करूँगा तुमको दूर पहाड़ियों से मैं 

पहचान लो तो चाय पीने आ जाना 

गुरुवार, 19 अप्रैल 2012

antim aranya

सौ आँखों से देखता हूँ तुमको
तुम डरा न करो
मैं बस देख सकता हूँ
आँखों का गुच्छा हूँ मैं

कीड़ा हूँ
मुझे रेंगता रहने दो एक कोने में
तुम मेरी दिनचर्या हो
मैं तुम्हारी दिनचर्या हूँ

दो कांटे हैं एक पुरानी दीवाल घडी के हम
दोनों हों तो वक़्त गुज़र जाता है 

malhar1

पहाड़ों में 
बौने होते हम 
शाम को बारिश के साथ 
अपनी आवाजें मिलाते  
दोनों 
बत्तियां तेज़ नहीं हैं 
कहीं ठिठुर सी रहीं हैं 
खिडकियों पर
ऊनी शाल में 
अपना गट्ठर बनाते 
एक कुर्सी पर जम सा गया हूँ 
चट्टानों के पीछे से बहती हुई धुंध 
फैलती जा रही है बस्तियों में 

सायकिलें  चिपक गयीं हैं छज्जे वाली खिडकियों से 
आखिरी मुसाफिर पान की दुकानों के आसरे 
बतियाने में मशगूल 
एक रेडिओ खोजता है ग़ुम आवाजें 
बदराए आसमानों में 

एक दिन अचानक 
कैसे बदल जाते हैं मौसम 

रविवार, 8 अप्रैल 2012

main shayar toh nahin

पता नहीं अलफ़ाज़ कैसे जीते हैं
मैं बस कलम से घरोंदे बनाता हूँ उनके
उनसे सुनता हूँ फिर फुसफुसाता हूँ पन्नों के कानों में

मैं शायर तो नहीं 

शनिवार, 31 मार्च 2012

engrezzi mein homecoming

roads will grow thinner
until they disappear
into a small courtyard
and then
we will meet

we started from those little veins
stretching out of our little doors
and flew into wide turbulent
unending roads

turning back each time
making a resolve to return
until we lost sight of those little doors

home was a road, a cybercafe, a dorm
home was a cubical, the back of a car
home was the railway station,
home was then just a word with nothing tied to it...
home had flown away...

i'm not sure of this
but i want to turn backwards
until the roads thin out into staircases....
and i can then
start placing a brick from the cafe
gravel from the street, sink from the airport lounge
and build a collage

and tie myself to it
keeping my head on the torn out boots.
sleeping away

गुरुवार, 29 मार्च 2012

bamangi ke liye

क्या गायेगा
क्या खायेगा
भेजा?
कलेजा?
गा नशे में
सच भी सुरीला लगता है
हो मस्त फिसल जा
जिन्दगी बर्फ है
बेटे बमांगी
फिसलता दूर निकल जा
देस ऐसे
जहाँ ठण्ड का मौसम जा चुका हो
और गल चुके हों बर्फ के भद्दी नाक वाले
सारे पुतले
गा
बसंत आएगा
तू ही लायेगा
बेटे बमांगी 

hemlata ma'am ke liye-2

सब आवाजें
जैसे बांध तोड़े
बह चली थी

आज तेरे घाट पर आ कर रुकी हैं

ओ मांझी
कब पार चलें वैतरणी के

सब कूल किनारे
छोटे होते जाते
किनारे दूर खड़े
सारे सहारे

कुछ गा मांझी
बहती नाव
बहती सुर की धार


अंतिम कहाँ
बस रचा था एक कल्प
एक पड़ाव के लिए
------------------------------



रविवार, 25 मार्च 2012

nirmal verma ki kahaniyon sa

निर्मल वर्मा से मेरा लगाव नहीं जाता. काफी आलोचकों के उन्हें ख़ारिज किया है. एक आउट ऑफ़ कांटेक्स्ट अंग्रेजी नोवेलिस्ट को हिंदी कहानी के characters dilute करने वाला बताया है. मैं एक साधारण पाठक हूँ और मेरा मत इन तरह की arguments में शुमार नहीं हो सकता . मेरा लगाव काफी personal है . मैं उनको पढ़ते पढ़ते शायद उनकी कहानियों का एक किरदार सा बन गया हूँ.  अकेला बेलौस रोमांटिक ..जो दुनिया को बस दूर से उठते ढलते देख सकता है , हाशिये से प्यार कर सकता है , एक कम रफ़्तार कहानी का किरदार जिसका अन्य किरदारों से एक situational सहमति का रिश्ता होता है.

मेरे लिए इस तरह की जिंदगी का सामना सिर्फ उनकी कहानियों में हुआ था, और आज खुद एक ऐसी ही कहानी की गिरफ्त में आ जाना आधी अजनबियत जैसा है , आपने देखा तो है पर कहाँ देखा मालूम नहीं. 
इन कहानियों को आधा पढ़ कर किताब सिरहाने रख सकते थे, पर जिंदगी का क्या करें, सिरहाने पर भी रखो तो लगता है कोई साथ सो रहा है.
काफी अरसे से देखना भी जाता रहा है ...तो डिटेल की परख नहीं मिल पाती. अमूमन वोही बातें दोहराता रहता हूँ. उनकी किताबों में भी कई बार वोही किरदार अलग अलग कहानियों में मिले हैं ; लाल टीन की छत; अंतिम अरण्य .....मगर दुहराव में भी एक चाव है , एक minute सा फर्क , वोही देखा है मगर कहाँ देखा है  वाला एहसास .

अगर आप कुछ ऐसे देख/जी रहे हैं तो ज़रूर बताएं ....
शुभरात्रि

शुक्रवार, 23 मार्च 2012

Hemlata ma'am ke liye

कितनी उम्र काफी होती है

कब कहते हैं
बस बाकी नेक्स्ट क्लास में करेंगे

गतांक से आगे की यात्रा आपकी
अकेली है....
न डर है गलते शरीर का
न चिंता, न दुनिया की उगाई हुई समझदारी की बेल , दम घोंटती हुई

बस एक सड़क है
जिसके किनारे की बेंच पर पन्ने हैं कुछ
और एक कलम है
--
मुझे नहीं पता हम कब मिलेंगे फिर
मैं बस स्टैंड से लौट चुका हूँ वापस , अपने कमरे में 
आपकी कलम के साथ
आपके पन्नों की कुछ कतरनों के साथ
--
मेरा प्यार आपको
आपकी यात्रा के लिए,नेक्स्ट क्लासों से दूर.......
और आभार
कि आपने मुझे कहना सिखाया, सुनना सिखाया
लिखना सिखाया
आदमी बनाया 

शनिवार, 17 मार्च 2012

मुझे चुप्पी का शाप था 
फिर बोलना भूल गया 
-------------------------------

शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

तेरे शहर की हवाओं से ये दरयाफ्त करता हूँ
वोही जो दूर किसी गुमनाम वतन से
समुन्दर के ऊपर बहती हुई
उड़ाती रहती है मेरे छत पे सूखते हुए कपडे

मैं भी किसी गुमनाम वतन का बाशिंदा हूँ
किस कदर आया इस शहर में मुझे मालूम नहीं
नहीं लगता है मुझको अपना यहाँ कुछ भी
कैसे जाते हैं वापस लौट के खुद के घर को

अजनबी होता हूँ हर उस घर में
जिसे अपना घर बुलाया करता था
समंदर हैं या पहाड़ हैं मेरे
या खेत हैं लहलहाते मीलों फैले
या पतली संकरी गलियां है तंग रस्ते हैं
या शीशे के मीनार जिसमें फिलहाल आजकल मैं रहता हूँ

हवाओं से पूछता हूँ हर रोज़ छत पे मैं
कैसे खानाबदोश हो के जीते हैं 

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

शायद उठ कर कहीं गया होगा 
महफिलों में रास्ता नहीं होगा 
आखिरी जंगलों के पार कहीं 
कोई इंसान सा इंसान होगा 

कोई कहता है 
रुक जाओ एक पहर के लिए 
एक बेहतर सेहर का 
उसे भी कोई गुमान होगा 

चादरों में समेट कर रातें 
सोकर उठे सुबह तो मंज़र नया मिला
कोई फिर से चाबी घुमा कर
दुनिया बदल गया होगा 

सोमवार, 13 फ़रवरी 2012

Nostalgia -2

समय चुकता नहीं है 
हम डर जाते हैं 
बहा देते हैं वो समय 
नालियों में 
और फिर किसी गली मुड़कर 
मुश्किल से ढूंढते हैं 
कहीं किसी नाली में 
जम तो न गया होगा 

यूँ बेकार होता रहता है आदमी हर दिन 

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2012

थकन के सुखन हैं ये साहिब 
लोरी की मानिंद कहे जाते हैं 
पहले जगते थे मुल्कवाले इनसे 
आजकल बच्चे सुलाए जाते हैं 




शनिवार, 28 जनवरी 2012

ChanduKhane-1

(चंडूखाने नशाखोरी की जगह होती थी जहाँ अलग अलग नालियां एक हुक्के में लगी होती थी , लोग हुक्का पीते और गपियाते थे )

  
कहते हो चढ़ती नहीं आजकल 
धुआं खेलते ही उड़ते हैं अलफ़ाज़ सबके एक साथ 
जैसे कागज़ के जहाज़ 
जिनका मालिकाना हक अब सिर्फ हवा का है 

चढ़ने और न चढ़ने का फर्क 
यहाँ से बाहर निकलने से डरने का फर्क 
कहने और न कहने का फर्क 
एक पहर के लिए खुदावालों की नज़रों से दूर 
दिल के करीब होने का 
अपने सीने से उसे खींच कर बहार निकलने का 
और उसकी आँखों में आँखें डाल कर 
बातें करने का फर्क 
दिख जाता है मियां 
शायद चढ़ती है तो बड़े प्यार से 
उतरती है तो उतार लेती है दो कदम ज़मीन की ओर


मुबारक हमको अपना चंडूखाना है 
यही दोज़ख यही ज़न्नत यही ज़माना है 
ज़िक्र चलता रहे मतलब - बेमतलब किसी शेह का 
किस गधे को इस महफ़िल से उठ के जाना है




मंगलवार, 24 जनवरी 2012

TATSUMI ( for tatsumi kobayishi, an inspiration )

कभी कहानियों में सुना था 
तत्सुमी 
कि जिंदगी की कालिख 
से बनाई जाती है जिंदगी की तस्वीर 
कोरे पर काला मलता है तो चढ़ता है 
ज़माने का grey
या ये सुना हो 
अपनी जान हथेली पर ले कर भागते हुए 
रुक जाओ वरना मारे जाओगे (या ऐसी कोई फिल्म देखी होगी)
और पता चला होगा 
कि भागते हुए ही जिन्दा रहते हैं 

या कयेवाखाने की नीली रौशनी में 
अपने बदन के सांचे में ढलता फौलाद नज़र आया होगा 
अपने अन्दर अपना खून पी कर पलता दानव 
बताओ Tatsumi 
pressure cooker से निकलती सीटी की हवा की तरह 
जिंदगी शोर भी करती है
हलकी भी होती है, थोड़ी गर्म भी 
और ऊपर उठती हुई दूर चली जाती है


Panne

खाली पन्ने खामोश नहीं होते हैं 
बेजुबान होते हैं 
अपने शोर को अपनी मुट्ठी में भींच कर 
कूड़ेदान में डाल देते हैं 
या छुप कर किसी मोटी जिल्द की तहों के भीतर 
बरसों गुज़ार देते हैं 
ख़ाली पन्ने खामोश नहीं होते हैं

मंगलवार, 17 जनवरी 2012

tum sabhi se

मुझे तुम्हारे नालायक होने से कोई शिकायत नहीं है
मुझे तुम्हारी चमड़ी के गैंडे से ज्यादा सख्त और
तुम्हारे दिल के मशीनी होने से
भी कोई शिकायत नहीं है
मुझे इससे भी शिकायत नहीं है
की बरसों से तुम्हारे समझ के नाक में नकेल डालकर
कोई हांके जा रहा है तुम्हे
और तुम्हे नहीं दीखता कि जुते हुए हो तुम किसी के तांगे से
सरपट भागना है तुम्हारा लक्ष्य
और तुम्हे नहीं दीखता है वो हंटर जो तुमने खुद अपने सर पर टांग रखा है

मुझे तुम्हारे बुर्जुआ होने से कोई शिकायत नहीं है
बस डरता हूँ कभी एक दिन
मेरे दरवाज़े पर न आ जाओ तुम
तलवार और बंदूकें लिए
मैं तुम्हारी खिल्ली नहीं उड़ा पाउँगा ..
तुम्हें समझ / समझा न पाने की कीमत
अदा करूँगा
तुम्हारे हाथों मरूँगा

Sangya shoonya

महसूस करना डरना है
आदमी के पीछे उसकी कहानियों के साथ
सम्भोग करना
डरना है
डरना है
आइनों के सामने makeup करना
डरना है
किसी के सच से उसको डराना , घिनाना
डरना है
दरवाज़े पर ताला लगाना
एक घर बनाना
और खुद को उसके अन्दर नज़रबंद कर लेना
डरना है

क्या है प्यार करके गुनगुनाना
डर के इन दिनों में मुस्कुराना
क्या है ...सबसे बचाकर
जिंदगी चुराना

sangya shoonya-1

नींद में देखा तो क्या
वो सपना तो गया

खाली आँखों के सामने एक लम्बी रात पड़ी है
दर्द का शायर
रात का उल्लू  होता है
अपने सामने वक़्त का vaccum बना कर
ताकता रहता है
संज्ञा शून्य

शनिवार, 7 जनवरी 2012

कुछ दिनों तक लेखन अवरुद्ध रहेगा, आगे की रचनायें बेहतर रहेंगी

धन्यवाद्
आनंद