ढल के छूट गया जब तुम्हारे साए से
रेत ही रेत हूँ मैं
मुन्तजिर एक आंधी का
तुम्हारे पैरों के निशान बचा के रक्खे हैं
बहारें भी तो यहाँ आँधियों सी चलती है
न जाने किस बहार में उखड चलूँ अगले दर तक
पिरो के आदतें पहन ली जिन्दगी गले में
फिरा के इनको जपता रहूँगा नाम तेरा
वो जो बहते थे आबशार कहाँ
अब मुझे कोई इंतज़ार कहाँ
bahut khoob,,,,,,,,,,,
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