शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

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उसका चेहरा
टूटे हुए पत्थर की तरह
ऊन के लोंदे से निकलता हुआ
घिसी दाढ़ी पर ठंढी धूल के पैबंद

उसके हाथ पेड़ के तने की तरह रूखे
काले कोट से निकलते हैं आग की ओऱ

मैं उसका चेहरा चाहता हूँ
मैं उसके हाथों का चमड़ा चाहता हूँ
अपने हाथों पर

 इस जाड़े में ओढ़ कर उसकी गरीबी
ठंढ से लड़ना चाहता हूँ 

रविवार, 2 नवंबर 2014

apne- muh

जाता हूँ के जिन रास्तों पे
कुछ नहीं जाता
गाता हूँ वो धुन अपनी
जिसे कोई नहीं गाता

मैं खुद से प्यार करता हूँ
मैं खुद पे वार करता हूँ

गुमता हूँ मैं गलियों में
के गलियां मुझमें उलझी हैं

लड़ता हूँ पर कायर हूँ
बेहूदा एक desire हूँ

मैं
पल दो पल का शायर हूँ 

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तुम
बहुत दूर चले हो
कितना कुछ लाद रखा है कन्धों पे

थोड़ी देर ठहर जाओ
सुस्ताओ

कुछ छोड़ कर जाओ रास्तों में

कुछ देर निहारो दोपहरी
कुछ देर बिसारो कचहरी
साँस भरो सूखी काया में

तुम
बहुत दूर चले हो

कुछ गाओ
या सुन लो नयी सी आवाज़ें

सर पर थोड़ी छाँव धरो
पैरों में थोड़ा गाँव धरो

पी लो धूप  सुनहरी 

शनिवार, 1 नवंबर 2014

gaya-1

उफ़क़ पर नूर के छींटे
सफर ये किन ख़लाओं का
मेरी छोटी सी खिड़की
और फिसलते रेल के पहिये

मेरे हाथों में कुहासा बन के बैठी है
रात रेशा दर रेशा
सुबह का सुनहरी तार
के तानों  की मुन्तज़िर शायद

ज़िंदगी चक्खी हमने
अमरुद की फालिओं में
रेल के डिब्बों में
मुरारपुर की गलियों में 

मंगलवार, 16 सितंबर 2014

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एक नज़र देख लू
इतना मुक़र्रर कर लू 
इस एक पल के सिवा 
जिंदगी का हासिल क्या 

खर्च यूँ भी होती 
हमने मुहब्बत कर ली 
उम्र भर अब आरज़ू क्या 
जुस्तजू क्या मंज़िल क्या 

हमने तन्हाई सुनी 
हरकतें सुनी तुमने 
मिलके दो चार हुए 
और वफ़ा का मतलब क्या  

gurpa-95

खिड़की की रेलिंग पे जमे पानी
को धीरे धीरे भाप बनता देखता हूँ
चाय की प्याली से लिपटे हाथ उसके
शाल से निकली दो पंखुड़ियां
खिल उठी हों दिसंबर की शाम में
मद्धिम से बल्ब की थिरकन के नीचे

उसको खबर है मेरी आँखों की हलकी जुम्बिश
छू कर उसकी बेफिक्र सी लटों को
वापस किताबों में लौट आएगी
मैं बस एक पल को होता हूँ
उसके एहसास का हिस्सा

बस इतनी शाम काटी थी
गुरपा जंगलों के बीच
भरे डब्बे में एक लम्हा कभी तन्हाई बाटी थी

खुमारी  एक कश में
तेरी आँखों की
ज़माने भर में
खुद का अफ़साना बना बैठे  

गुरुवार, 7 अगस्त 2014

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मैं ढला करता हूँ हर शाम लम्हा दर लम्हा 
तुम्हारी शाम को कोई चिरागां और करे 

मैं फिर मिलूंगा तुम्हें सुबह के मुहाने पर 
ग़ैब सपनों की हिफाज़त कोई और करे 

मैं सर्दियों का लिहाफ हूँ बदरंग ओ ख़राब 
हसीं मौसमों की रंगत कोई और करे 
अपने सपनों का एक सिरा
मेरी तरफ दे दो

मुझको आने दो अपने ख्वाबों में 

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सांस ठहरी रहेगी
जब तक तुम ठहरे रहोगे
इसकी ड्योढ़ी पर

इसको इंतज़ार  करना आता है
दिल की तरह ये बेताब नहीं होती  है
इसको पता है वक़्त कभी कम पड़ता
इसको पता है हम कभी कम नहीं पड़ते
बस होते नहीं हैं जब वो पल गुज़रता है
अपने पूरे ख़ुलूस के साथ

साँस लय पर चलती है
समझती है कि तबले की झोंक पे
उतरते चढ़ते
उसको अगली लहर मिलेगी
किनारे की  तरफ जाती

थाम कर चलना तुम मेरी सांस का हाथ
इसकी नब्ज़ तुम्हारी जुम्बिशों की आशना  है 


शुक्रवार, 25 जुलाई 2014

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कुछ दिनों के बाद शायद
कुछ दिनों के पार शायद
इस धुंधलके के लिए
इतना भरोसा बस रहा

रात सूखी धूप से जल जल कर
सूखी रेत पर
आँखों में जो भर लिया था
उतना दरिया बस रहा

ये भी कट  जाएगी
खुद के लिए जो की मुक़र्रर
नींद से लड़ते लड़ते सुबह तक
तेरा चर्चा बस रहा



halaaton ke beech

ज़ुम्बिशों  के तहखाने में
एक हरारत तेरी रक्खी थी
आज  लगा यूँ
धूल झाड़  कर
छू  लूँ तुझको
जैसे पहली बार छुआ था

इन मौसमों में
मुहब्बत छुपा कर रखते हैं
ज़बान दबा कर रखते हैं 
दिल रखते हैं तहखानों में
सीने  में  सब्ज़ बहारों की राख रखते हैं

आहिस्ता आहिस्ता
बुझने के लिए 

बुधवार, 14 मई 2014

मेरे माज़ी का  दस्तख्त  हूँ  मैं 
अपने बुजुर्गों का  आखिरी चेहरा
अपने सपनों की  वसीयत हूँ मैं

अपनी पहचान में जुड़ा हूँ कुछ लोगोँ से
उनकी पहचान साथ रखता हूँ

शनिवार, 26 अप्रैल 2014

तुम बदल-बदल गए हो
तुम नये नये हो
तुम चुप चाप सुन लेते हो मेरा पागलपन

तुम कहाँ दूर चले गये हो

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हम झगड़ते क्यों नहीं हैं
क्या हम समझदारी की  आड़ में  जाने देँगे
एक दूसरे के शोर में डूबा हुआ मौका
सुनने का
के कितना दर्दनाक  है
दुनिया में अकेला हो जाना  

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ये दिलफरेब रातें हैं
इनमें दूर
नहीं जाया करते

एक कम्बल के सिरहाने तक बांध लेते हैँ दुनिया
एक दूसरे की बाँहों में एक उमर काट देते हैं

ये तूफ़ान दो घड़ी भर है
हमको दूर जाना है 

सोमवार, 21 अप्रैल 2014

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कहीं चनाब कोई
झूठ में भी
नहीं बहता

बस अनगिनत
सीढ़ियां
तहखाने हैं

उनमें रिसता
नालियों का पानी है

बस थोड़ी नींद है एक सच
और दूसरे के बीच

कुल मिलाकर
ये अपनी रोज़ की कहानी है 

बुधवार, 2 अप्रैल 2014

Well you never showed me the chain
You never
Showed me how to break it
Yet we came here
you and I

What does that make us

शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2014

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सच उधेड़ने के सिवा और कुछ नहीं करता

तो फिर क्यों जानना है
सच
जब कुछ चीथड़े ही
बच गए हैं

बुधवार, 12 फ़रवरी 2014

परत दर परत हूँ मैं आखिर
आखिरी परत के नीचे कुछ भी नहीं

उतार दूं ये सारी परतें
तो कुछ नहीं हूँ मैं
कुछ भी नहीं

तो उड़ सकता हूँ हवा के साथ
न धूप न छाव न बूंदों के थपेड़े

ज़िंदगी तेरे और मेरे दरम्यां
कितने उम्र कितनी परतें हैं 

सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

कुछ आखिरी रस्तों की जानिब से
सुन लेता हूँ
चहलक़दमियाँ

इनके बीच में तन्हाई के तहखानों से
हज़ार चुप्पियों का दर्द फूट पड़ता है

मैं बस  अक्षरों का भड़वा हूँ
देखता हूँ ,  डर कर भाग जाता हूँ 

benam khaidmatgaron ke naam

धुए के कारोबार में हम
पहर दो पहर
बेवजह
मशगूल रहे

आग कोई और जलाता चला गया
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शनिवार, 1 फ़रवरी 2014

iltiza

मेरी चिंगारियों के सीने में
कोई खाली सा धुआं रख दो कभी
मुझे जलने मत दो
मुझे बुझने मत दो

मेरे अरमानों को बारूद  की गाली मत दो
उनको मौसम दो
पतझड़ दो, बहारें दो
उनको उगने दो खिलने दो और फिर झड़ जाने दो

उनको महफूज़ रखो
आन्धियाँ परे कर दो
मेरी चिंगारियों से बात करो फुर्सत में
उनमें कई आतिशें लरज़ाँ हैं 

रविवार, 12 जनवरी 2014

तुम फ़रिश्ते तो नहीं हो
मैं भी फरिश्तों सा कहाँ 
फिर भी मौके बे मौके 
बहार  आ जाती है 
हमारी महफिलों में 

अब के आये तो ठहर जाना दो घडी के लिए 
एक मुद्दत से बहार  ठहरी है तुम्हारे इंतज़ार में 

बुधवार, 1 जनवरी 2014

साल के सख्त दरख्तों के बीच
महुआ का शोर
उस शोर में कल रात की
हड्डी हिला देने वाली ठण्ड
का जिर्क धूलबस्ता कम्बलों में डूबे हुए सरों और निकलते हुए फटे तलवों से

चट्टानों कि ओट में
मैं अपनी डायरी लेकर बैठा हूँ
पत्थरों में ठंढ है
जो मेरी खाल में रगड़ता है
मेरे रोयों के रास्ते घुसता है मेरे सीने में

मैं बहुत दूर हूँ पलामू  के जंगलों से
जहाँ अब शायद
गोलियों का मौसम गर्म है