शनिवार, 31 दिसंबर 2011

ekant

एकांत क्या है
वो द्वार क्या है
जिसके उस पार
सुनाई नहीं देता शोर
अपने अंतस का भी नहीं

क्यों भागता है मन
शोर से दूर
अपने अन्दर के कोलाहल को
एक जिन्न की तरह बोतल में कैद करने की
कोशिश करता है

और किधर पहुँचता है, कहाँ फ़ेंक आता है बोतल
किसी ने देखा है

एकांत कुछ नहीं होता

मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

kavi ko kahiye

कवि को कहिये
चुप रहे
कविता कहने और सुनने की नौटंकी
कहीं और करे
ये मनोरंजन के शगल क्रांति के धोखे से
उन किसानों के घर घुस आये हैं
पिछले पूस जला दिए गए झोपड़े जिनके
जिन्हें थप्पड़ों लातों से मिलती रही पगार
जिनकी जात जिनका नाम
एक गाली है

कवि को कहिये
इस धोखे में ना रहे
कि वो कुछ बदल रहा है
अपने भांडों कि जमात के साथ
वो भी
आत्म प्रवंचना की सड़क पर चल रहा है

कवि को कहिये
बस सुने
पत्थर में सनी पुश्तों का शोर
उनके फेफड़ों की धौंकनी से बहती
गर्म हवा की सीटी
उनके पेटों में गलते कुदाल और हल
जहाँ से अब
बंदूकें बनेंगी

-

बेखबर
हुआ नहीं जाता
और
खबरों के अन्दर उबलते तेज़ाब का शोर
सुना नहीं जाता

हाँ सर झुकाया जाता है
हाँ जी कर दिखाया जाता है 

kuch khali se kamre

खुलता है दरवाज़ा 
सांस छोड़ते हैं जैसे 
कुछ खाली कमरे 

मैं रोज़ रात आता हूँ
सुबह निकल जाता हूँ 
अपना कबाड़ इनके फेफड़ों में छोड़ कर 

इनसे बात भी नहीं करता 
एक मजबूर शादी की तरह 
हम दोनों बस रात को नीद का बहाना कर 
एक दूसरे को बर्दाश्त करते हैं 

कोशिश करता हूँ इनको भरू
चीज़ें खरीद कर ठूस देता हूँ उनके अन्दर 
मगर कुछ दिन बाद वो भी इस खालीपन का हिस्सा बन जाती हैं 

कुछ दिन पहले एक चूहा भी आया था इनमे रहने 
कचरे के ढेर में निकली उसकी मैयत 
अब फिर अकेले हैं 
ये कमरे और मैं 


गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

for my wife

मुस्कुराया करो ज्यादा तुम  

जो कभी दिन ढला करे जल्दी 
सर्द रातें चलती हों गलियारों में लालटेन टाँगे  
अधजली लकड़ियों का लोबानी धुंआ 
तैरता रहता हो मोहल्ले के छतों पर 

घनचक्कर मच्छरों के झुण्ड के झुण्ड
भटकते रहते हैं एक खिड़की से दूसरी खिड़की 
मिलते रहते हैं हमदर्द पड़ोसियों की तरह 

जनानखाने में रौशन तेरी हंसी के दिए 
तेरी बातें रेशम की तहों की ररह
एक के बाद एक खुलती जाती हैं 

तुझसे मुकम्मिल है मेरी-तेरी  शाम-ओ सेहर 
हमारी छोटी सी नायब सी दुनिया 
हमारे किताबों के cd यों के ढेर 
सालगिरह मुबारक हो हमारी खुशियों की 
मुस्कुराया करो ज्यादा तुम 


 

शनिवार, 3 दिसंबर 2011

तुम्हारी दुनिया के हवाले से
फिर एक इलज़ाम आया है

याद ऐसे भी किया करते हैं परायों को


मंगलवार, 8 नवंबर 2011

बेकसी एक तजुर्बा है
जो अता होता है 
बेबसी - देखना और समझना है 
उसे जो चुपचाप बयां होता है

सोमवार, 19 सितंबर 2011

फितूर ही तो नहीं 
खुद का मसीहा होना 

खुद के टुकड़े सी कर 
ओढ़ कर खुद को ज़र्द रातों में 
जलते दिल की चिंगारियों से रौशन 
उस बियाबान सड़क पर निकल जाना कहीं 
खुद पे इतना यकीं कर लेना 

फितूर ही तो नहीं 
मुट्ठी में जिंदगी भर लेना 

summations

हम गुज़रते रहे हैं 
इन दरख्तों के बीच 
तुम्हारी याद की पगडंडियों पर 

वक़्त कमबख्त गुज़रता ही नहीं 
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मंदिर में बंधी चुन्नियों में 
तुम्हारा नाम लेकर 
अनगिनत गिरहें बांधी मैंने 

एक गिरह आ कर खोल जाना , मैंने जिंदगी बांधी है कहीं
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अपना रसूख है 
वफ़ा personal होती है मियां 

प्यार खुद में रखो तो दर्द नहीं होता है
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न रस्ते बनाये 
न चला किसी के क़दमों पर 
यहीं खड़ा रहा नुक्कड़ के नीम तले

ज़माने आज भी चुप चाप ही फिसलते हैं
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रविवार, 18 सितंबर 2011

किसको दिखाने के लिए
ये रात टांगी है 
आसमान के दो सिरों पर 

चांदनी गिरती रहेगी 
चादर से निकले तुम्हारे तलवों पर 
बर्फ से चांदी खुरच कर 
तुम्हारे गालों पर मलती रहेगी 
चांदनी गिरती रहेगी 

लडखडाती है तुम्हारी अधखुली आँखों पर 
टिमटिमाती बाती की नींद से बेसुध छाया
डरता हूँ न जगा दे तुमको 
उडती रात का आँचल 
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रात गीली है सुबह तक सूख जाएगी 

बुधवार, 14 सितंबर 2011

Kashmir

चुप से थे 
सिहर से जाते थे
सारे चेहरे बिखर से जाते थे

कंचों का खेल था जिन्दा रहना उन दिनों 

चुप हैं 
पर अब सिहरते नहीं
चेहरे टुकड़ों में हैं 
पर बिखरते नहीं 

आदत है, जिद है  
जीते रहना मेरे  शहर में अब 

सोमवार, 5 सितंबर 2011

winter:delhi

उन दिनों
आदतें भी नयी सी लगती थी 
उन दिनों
धूप बारिश सी बरस जाती थी

खाट पर गुडगुडाते हुक्के में घुली बुज़ुर्ग उर्दू
शरबत सी ज़हन में उतरती जाती

इतर था हवा का हर मुसलसल झोंका 
तुम्हारे पैरों की आहट दीद-ए-सनम होती थी

सर्दियाँ थी दिसम्बर  की
और बावरा सा रहता था मिजाज़ मुह्हबत में तेरे 

शनिवार, 3 सितंबर 2011

Triveni

शाम तक बरसता रहा 
अब पत्तों पे जा के अटका है

एक घडी को ठहरा है ये बूंदों का काफिला 
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रात ऐंठी रही 
बैठी रही दरवाज़े पे

सुबह की ट्रेन तुम्हारी ज़रूर छूटेगी 

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अकेला हो गया है बूढा बरगद 
न पत्तियां न घोसले चिड़ियों के

लकडहारे ने तेज़ की कुल्हाड़ी अपनी 
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prem aur anya mithak

शाश्वत 
सत्य , प्रेम, मौलिकता
जीवन की सार्थकता
 शाश्वत
संभावनाएं,संवेदनाएं, मर्यादाएं 

 क्यों शाश्वत का बोझ लाद कर 
चलता तेरा क्षरता तन है 
 छोटा सा तेरा जीवन है
सब भंग सभी पल में दिखने वाले मिथक हैं 

जी चल इसके पार 
बना एक नयी परिभाषा जीवन की
खोज बस अपना धरातल 
एक व्यक्तिगत सत्य

और  डाल दे मिथकों की थैली में
 एक और वास्तविकता

शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

conversations

सुन सको अगर 
दबी चीखों में 
एक बीते हुए दिन की भैरवी 

सुन सको अगर
हर एक जुम्बिश  वक़्त की
उन सभी चेहरों पर 

बिना बंद किये कान 
अगर बर्दाश्त कर सको
तन्हाई का सैलाब सा शोर 

तो मिलेंगे शाम को
एक प्याली चाय पर

मंगलवार, 23 अगस्त 2011

बरसते हुए देखता रहा तुमको 
आसमानी नदी 
कोई समंदर नहीं खड़ा तुम्हारे इंतज़ार में 

बस एक तपती सी सड़क है तनहा 
मुंह बाये आसमान को तकती 

जिंदगी चाहे कितनी छोटी हो तुम्हारी
मानी उसके समंदर से बड़े लगते हैं 

रविवार, 7 अगस्त 2011

portrait

घुल रहा है 
तुम्हारे सपनों सा 
कैनवास पे रंग 

धूप की बारिश 
इन्द्रधनुष 
साइकिल चलते बच्चे 
मूंगफली  वाले की आवाज़ 
"बादाम भाजा, फोड़-फोड़ के खाजा "
सफ़ेद पे पीला , चम्पई 

एक लड़की की आँखें 
ताकती बेचैन, 
रेलिंग के पीछे सर झुकाए झूमते eucaliptus के पेड़ 
जाड़ा ऊनी pant गहरे हरे रंग की jacket
दुर्गा पूजा की भीड़ 
मेला दुकानें नए कपडे 
आसमानी है न , एक लम्बा stroke

किताबें, और किताबें 
उनकी बदबू, उनके पीछे झांकती भूखी आखें 
रिजल्ट , और रिजल्ट और किताबें, 
एक साल से दुसरे साल का बदला
भूख और भूख 
बंद कमरे के बाहर  थोडा सा आसमान 
ग्रे

फिर बहाव 
मुट्ठी, आवाजें 
अलग अलग दिशाओं में खींचते हाथ
खुद से विवाद, और विवाद 
फिर खाली सा दिन
थोडा और ग्रे 

गिरती इमारतें
गायब होते लोग
सख्त स्याह प्लास्टिक सा होता अंतस
दोपहर, धूप 
लाल, 

कैनवास पे सूखते strokes 

सोमवार, 1 अगस्त 2011

धूप में सूखते हुए सन्नाटे 
सुफैद चेहरों का बासीपन 
खचाखच भीड़ में एक कब्र सा एकांत 

शहर चुप हो गया है मेरा 



शनिवार, 30 जुलाई 2011

कहूँ कुछ भी 
अलिफ़ तुम ही होते हो
तुमसे जुदा बातें नहीं होती मेरी 

न आते भी ज़िक्र तुम्हारा चला आता है 

मुहब्बत हो या नफरत 
मिजाज़ बदमस्त रहता है 
वो लादादात बहते अश्कों में
हमारी कश्ती का सफ़र जारी है

न बुलाना चाहता हूँ पास
न दूर जा के बैठूंगा 
खिडकियों में बंद हो कर देखूँगा 
तुम्हारे चेहरे के बदलते मौसम 

हयात ए इंतज़ार 
बड़ा मीठा सा ज़हर है जानम
हम इसको पिए जाते हैं 
ये हमको पिए जाता है  


बुधवार, 27 जुलाई 2011

for joseph macwan

तुम्हारी मुट्ठी में कैद हैं सांसे मेरी
तुम्हारे पंजे जबड़ों की माफिक

मेरा वजूद दबोचे बैठे हैं

घुटन पुश्तों से घुल गयी है
पत्थर पे रिसते खून में

पूछते हो क्यों बम बन गया मैं

रविवार, 24 जुलाई 2011

tanhai

रात इस बार बेकार लौट आई है

उन सभी आवाजों से भागकर
पनाहगीर हांफती
पहुच नहीं पाती है अपने घर
बस छटपटाती रहती है मेरे बिस्तर पर
न खुद सोती है न मुझको सोने देती है

चाँद झांकता रहता है खिड़की से मेरे
घूरता रहता है रात का धुंधला चेहरा

बस हम तीनो और पंखे की नाचती परछाई है
एक hyphen है तन्हाई और तन्हाई के बीच

शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

antaraal

सुलझ जाता हूँ तो लिख नहीं पाता
लिखना खुद से कहना हो गया है
चुप होता हूँ तो कह नहीं पाता

कवि नहीं हूँ
पेचीदगी से जूझने के लिए लिखता हूँ
लिख लिख कर खुद को खाली करता हूँ
खाली होता हूँ तो लिख नहीं पाता

देख रहा हूँ 
उलझ रहा हूँ फिर 

कुछ  तो इसका भी बन जायेगा हमारे साथ


सोमवार, 20 जून 2011

क्यों रास्तों में परदे नहीं टंगे कुहासों के
लोगों की नज़रें दोपहर सी लगती हैं 

मुझे छुपा लो तुम्हारी बेपनाह गलियों में 
मुझे दिखना नहीं है लोगों में 


itivrit5

कुछ नहीं है लिखने को
बेआवाज़ अल्फाजों की पतंगें हैं
छत पे बैठा 
उडाता रहता हूँ हवाओं में 

मेरा नाता नहीं है इनसे अब
ये हवाओं के जने उनके सगे 
इनको किसी दूर देस जाना है 

इनका नाता नहीं है मुझसे अब
मेरे घर में नए अलफ़ाज़ लिए
नए मानी आ गए हैं किराये पे 
पतंगों की तरह दूर कहीं उड़ने को 

रविवार, 12 जून 2011

for manali

दरिया के सिरहाने
लेटे हैं पहाड़
शाम के साए सुलगती सी लौ के एक तरफ

मैं कदम दो कदम सरकता हूँ
उनकी गोद में गुम है घर मेरा
जिसके चेहरे पे एक लालटेन टांगी थी

उस घर में कई लिहाफ पड़े रक्खे हैं
उनमें घुसकर किसी के सिरहाने में
मुझे सुननी है कहानियां हसीन परियों की

मुझे उठकर सुबह अपने मुह से
धुएं के छल्ले फेंकने हैं कुहासों की तरफ
फिर फिसलकर कई इत्मीनान गलियों से
किसी टपरी चाय maggi खाना है......

नहीं लगता है मन तेरे  शहर में अब
मुझे ले चल कहीं पहाड़ों में

गुरुवार, 2 जून 2011

किनारे से अब न कहो दूर कहीं जाने को
बहुत तैरा हूँ मैं बदमिजाज़ लहरों में

कब से देखा किया अपनी ही शकल में उसको
सांस ले ले के याद की उसकी सांसें
पागलपन की हद तक रगडा आब पत्थरों के सीने में

इनकार है मुझको और जूझने से अभी
इनकार है मुझको और जूझने में अभी  


गुरुवार, 12 मई 2011

from kabir vani- haman hai ishq mastana

Haman hai ishq mastana, 
Haman ko hoshiyari kya?
Rahe azad ya jag mein,
Haman duniya se yaari kya?


Jo bichude hain piyare se,
Bhatakte dar badar phirte,
Hamara yaar hai humme,
Haman ko intazaari kya?

Na pal bichude piya hum se,
Na hum bichude piyare se
Unhi se neh laga hai,
Haman ko bekarari kya?

Kabira ishq ka mata,
Dui ko dur kar dil se.
Jo chalna rah nazuk hai,
Haman sar bojh bhari kya?

बुधवार, 4 मई 2011

album

खो गए घर 
फोटुओं में 
बस खराशें रह गयीं 

ईट पत्थर 
रह गए 
रिश्तों की फासें रह गयीं 

अब बना भी लोगे 
तो खाली ही बनता जायेगा 
अँधेरे में घूरता हुआ 
सवाली ही बनता जायेगा 

बंद कर के रख दो
धुएं के पिटारे को 
खुल गया तो
ये दिन बिचारा गुज़र न पायेगा 

सोमवार, 2 मई 2011

skeptic

चिरागों से जल जाता है
आज कल घोसला मेरा

कलमा पढ़ कर ही मुस्कुराता हूँ

खुशियों का क्या ठिकाना
किस डाल जा फिरें

ज्यादा खुश होता हूँ तो डर जाता हूँ

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

itivrit4

चलते रहना है बे मकाँ होना  
ठौर पल का है 

वक़्त की फिसलन पर
पंचर पड़ी रातों में घुसकर
उन्मुक्त बहेगा मेरी वीणा का स्वर 

मिल जाना है लापता होना
चलते रहना है बे मकाँ होना 
 
मैं स्वयंभू 
निर्वात में मसनद लगा कर 
हांकता हूँ 
अपने बे लगाम घोड़ों को

इस रात फलक के दरवाजे पर 
नींद ओढ़ कर 
बेहिसाब सपने देखूंगा 





बुधवार, 16 मार्च 2011

love 1

उनको चुप्पी से सुना करता था
उनकी क़दमों की आहट में
रास्तों के चेहरे बुना करता था

उनकी आवाज़ बरसी है आज घर पे मेरे
गीला गीला सा हूँ मुस्कुराता रहता हूँ 

सोमवार, 7 मार्च 2011

itivrit 3

मैं बहना चाहता हूँ 
मगर दरिया नहीं हूँ 
पत्थर हूँ 
एक बरसाती नदी की राह में बैठा 
इंतज़ार कर रहा हूँ सावन के बरसने का 

ऐसे कई मौसम 
जब गुज़र जायेंगे तब 
शायद पहुच जाऊंगा तुम्हारे शहर तक 
मुझे उठा कर तराशना मत 
मैंने नदी के साथ बहकर 
वक़्त के साथ एक शक्ल पाई है
ये चेहरा नहीं है इतिहास है मेरा, मेरा इतिवृत 
बस पड़े रहने देना नदी के किनारे
ताकि उन आखिरी दिनों में थोडा सुस्ता सकूं मैं

खैर ये काफी देर की बातें हैं 
अभी देखें कितने घुमड़ कर आते हैं बादल 
अगले महीने में 

बुधवार, 2 मार्च 2011

debates

अपनी तबियत के मारे 
मन के बच्चे 
अपनी ज़बान के खारिज होने के 
गूंगेपन से जूझते 

रोज़ उस पुल पे आ बैठते हैं
पुल का दावा है कि वो एक दिन जोड़ेगा 
जिंदगी के दो सिरे .....

उम्मीद की लाश पर तने
इस लोहे के मकबरे से पूछो 
कितनी पुश्तें गुमराह की हैं इसने 
झूठे वादों से 


मंगलवार, 1 मार्च 2011

mera shahar

मेरा शहर मुमकिन नहीं 
हर रोज़ बनाता हूँ अपने सच की रेत से 
मासूम रोज़ ही आ जाता है लहरों के थपेड़ों में 

अपने मुमकिन से शहर में मुहाफ़िज़ रख लो 
दुनिया में ऐसे भी सपनों की हकीकत नहीं होती 

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

सिलसिलेवार तरीके से घट रही थी
हमारे आस पास 
हम उसे जिंदगी बुलाते रहे
बच्चे स्कूल जाने से डरने लगे 
अखबार टोइलेट की तरह साफ़ 
पड़ोस से अचानक लोग गायब होने लगे 

जो आता रहा टीवी पे 
बेचता रहा डर
अलग अलग शक्लों में 
हर चीज़ के लिए मशक्कत 
जीना मुश्किल हुआ
फिर बेमतलब 

फिर आदतों का एक मुल्क बनता गया 
बेमतलब बेतरकीब बेहिसाब बढ़ता हुआ
एक घाव 
जिसकी टीस की लत में धुत
एक पूरा देश नीद से जगाने वालो की माँ बहन करता हुआ
सोता रहा 


coma में लेटे 
अपने मुल्क की उनींदी पलकों से 
मक्खियाँ भगाते हुए
सिलसिलेवार तरीके से
तीस साल का हो गया

सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

Haasil

उम्र भर चले जिन रास्तों पे हम 
हासिल क्या उन रास्तों का 
कहानियों के सिवा 

कभी सोचता हूँ
और क्या होता हासिल 
दूसरे रास्तों पर 
जिन्हें हम देखा करते थे छत पर खड़े होकर 
तेज़ रफ़्तार से फिसलती थी ज़माने की गाड़ियाँ जिसपर 

अपने अपने हिस्से की रवानियाँ है 
न सुनी हो मैंने 
पर उधर भी 
हासिल 
कहानियां हैं 

किसकी कहानियों का किरदार था मैं 
किसके प्लाट का खलनायक 
अनजाने में किसकी चीखों का गला घोटा मैंने 
एक दूसरे में गुत्थमगुत्था 
ये किनकी कहानियों के जाल में बुना मैंने
अपनी जिंदगी का तार 
और उधेड़ दी किसकी चादर 
अपनी डोर खींचते हुए 

राम 
पतंग से लगता तो उड़ता 
या बुना रहता किसी की चादर में...
 सोचता तो भी क्या .....
क्या हासिल...किसकी कहानियां ...क्या रास्ता...

रविवार, 6 फ़रवरी 2011

-

रात को बिस्तर में बडबडआते हुए
जो भी निकला था खुदा खैर करे
थोडा सच था तुम्हारे बारे में
थोडा सच था हमारे बारे में

नींद कमबख्त जगाती है रात भर हमको
झपकियाँ थपेड़ों  सी आती हैं चली जाती हैं
शिकायत करते हैं के गुम जाये रजाई में कहीं
चादर के साथ धुल जाये किसी सन्डे को

छुप के सो जाऊंगा धूप तले
नींद के साथ मेरा खेल बरसों से जारी है 

सोमवार, 31 जनवरी 2011

itivrit-2

न सोचेंगे
चुप्पियों के ढेर में छुपाये गए
मुट्ठी भर  मातम के बारे में
न सुनेंगे और न सुनायेंगे
जो देखा था
हमने खिडकियों से
जब हम छोटे थे

बाथरूम में खुद को कैद कर
भूलने की साजिश करेंगे
और फिर बेवजह रातों में चौंक कर उठ जायेंगे

कहीं जाना नहीं है इन लम्हों को
बस दीवार से टकरा कर कैद रहना है
तुम्हारे अन्दर 

गुरुवार, 27 जनवरी 2011

इस बार जो आये सर्दियाँ 
तो बांध के रखना छप्पर से 

कुछ मौसमों की आदत सी लग जाती है 
इस दर ओ दीवार में जिन्दा हूँ
बंद हूँ इसलिए परिंदा हूँ 

सोमवार, 24 जनवरी 2011

aajkal

गुबार में भी उसकी शक्ल दिखती है
जब भी आते हैं घर चेहरे छोड़ कर जाते हैं लोग
जिन्दगी एक मज़ाक के कहकहे सी चलती रहे
सांस लेने की आदत भी पाल लेते हैं लोग
हमारी बस्ती में अक्सर दिन ढलता नहीं
कालिख पोत कर सूरज पे रात लेते हैं लोग
शहर में छेद हुआ है के रिस रही है भीड़
कतरा दर कतरा धुआं बनते जा रहे हैं लोग

रविवार, 23 जनवरी 2011

raste raste

चुप हूँ के सन्नाटों में दब जाती है 
खामोशियाँ मेरी
भीड़ में खुद को अकेला छोड़ आया हूँ 

टूटे हैं सभी पुल ,अब गर्क-ऐ -दरिया हूँ 
क्या बताऊँ क्यों पुल ये सारे तोड़ आया हूँ 

जीने और मरने के फर्क पे बैठा हूँ मैं बरसों से
बरसों पहले से जीना और मरना छोड़ आया हूँ 

हर एक रिश्ते की खराशें जिस्म पर लादे 
वो घर वो कूचा वो क़स्बा छोड़ आया हूँ 

न हूँ मैं वक़्त से आगे ,न वक़्त से पीछे हूँ 
अपने वक़्त को चादर की तरह ओढ़ आया हूँ 

सोमवार, 10 जनवरी 2011

fracture

टूट कर गिर गयी आखें चेहरे से
बातें तश्तरियों की मानिंद चटक गयी किनारों से
 अब गए दूर जो खुद से
न जुड़ सकेंगे कभी

ये दरारों की सी हरकत नहीं
जो उगती हैं जैसे आता है अकेलापन
एक हमसाये हमसफ़र का मुखोटा लेकर
ये fracture है
एक झटके का ज़ख्म
खुद पे किया गया आखिरी वार

न मरहम न पलास्तार
न सुकुंवर से सुखन
दो हिस्से हैं अनजान से मेरे खुद के
उनमे मैं हूँ दो अलग वजूदों में जीता सा हुआ
सीने में लिए एक fracture

khidkiyan

खिड़की से दिखती है
दुनिया खिड़की जैसी
खुलती है तो फ़ैल जाता कमरे में धूप का रंग

तुमपर बरस रही है धूप की पहली बारिश
चढ़ रहा है न उतरने वाला सुर्ख ताम्बई रंग
खिड़कियाँ तुम्हारी ज़बान , तुम्हारी आखें 
कि जब भी खोलो तो बह चले
नूर ऐ बयार
और हर एक शेह जो सुस्त , मनिन्दा सी थी अब तक
नाच उठे एक चम्पई दुपहरी में

न करो बंद के मुरझा जायेंगे
मन के कोपल
के खिडकियों से ही सही आसमान तो दिखता है

देखे खुदा तुम तक
तुममें खुदी का अक्स आये
खोल दो खिड़कियाँ सारी
के धूप घर आये