सोमवार, 20 सितंबर 2010

shatranji

काला सफ़ेद
जैसा दिन
बनता जाये शतरंजी
ये शह वो मात
पापड़ sabzi दाल भात
tire में जमे पानी जैसा
सड़ता जाये शतरंजी

भूरा है सब
कैसे खेले
कौन बिछाये शतरंजी

untitled

सांस बुनते रहे थे काटों पे
धडकनों के दस्ताने
पूरे आते हैं उनके हाथों में

गुज़र जायेंगी सर्दियाँ एक दूजे के भरोसे