शुक्रवार, 30 जून 2017

Ba-har- haal

वो मिल गया 
वो खयाल था 
वो नहीं रहा 
ये मलाल था 

वो ख्वाबों का मेरा गुलमोहर 
उसे छोड़ घूमा कई शहर 
जब थक गया 
तब रुक गया 
उस छाँव में 
जो सराब था 

ये गुरेज़ का एक तिलस्म था 
जो उगता था मुझसे बाहर 
अपनी जड़ें 
गहरी डालता 
मेरे अंदर 
मैं अपने डरों की मिटटी हूँ 


मैं कैसा हूँ 
ये जवाब था 

रविवार, 11 जून 2017

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कितना जिया ?
ये सवाल पूछा है खुद से कई दफा
जवाब
कैसे जिया की मार्फ़त आता है
अब कभी पूछता हूँ
क्या है पहचान मेरी
मेरी मजबूरियों के अलावा

एक दफा
सबको बता रखा था सपनों के बारे में
कुछ हंस कर कुछ डर कर

वो गुम हो गया शायद
सपने सुनाने वाला
इस जंगल सी फैली दुनिया में

इस उम्मीद से लिखता हूँ ख़त
कभी कभी उसको
एक बड़े पेड़ के तले
हम दोनों किसी सुबह
ज़िक्र छेड़ेंगे उन्ही सपनों का


वो देखती  भी नहीं
मैं दरिया सा बहा जाता हूँ
वो किनारे पे खड़ी
दिन को शाम करती है

उसकी बातें दिए सी जलती रहती हैं
बारिश में गूंजते हैं झींगुर
मैं किताब के पन्नों में
उसकी शक्ल डाल कर बैठा हूँ

दुनिया हर रोज़
फ़र्क़ बढ़ा देती है
हौसले मिटा देती है

मुहब्बतें मेरी बैरंग चिट्ठियों की तरह
घूम कर मेरे सिरहाने आती है
कहानियां सुनती है
 सुबह के धुंधलके में
कहीं दूर निकल जाती है