गुरुवार, 7 अगस्त 2014

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मैं ढला करता हूँ हर शाम लम्हा दर लम्हा 
तुम्हारी शाम को कोई चिरागां और करे 

मैं फिर मिलूंगा तुम्हें सुबह के मुहाने पर 
ग़ैब सपनों की हिफाज़त कोई और करे 

मैं सर्दियों का लिहाफ हूँ बदरंग ओ ख़राब 
हसीं मौसमों की रंगत कोई और करे 
अपने सपनों का एक सिरा
मेरी तरफ दे दो

मुझको आने दो अपने ख्वाबों में 

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सांस ठहरी रहेगी
जब तक तुम ठहरे रहोगे
इसकी ड्योढ़ी पर

इसको इंतज़ार  करना आता है
दिल की तरह ये बेताब नहीं होती  है
इसको पता है वक़्त कभी कम पड़ता
इसको पता है हम कभी कम नहीं पड़ते
बस होते नहीं हैं जब वो पल गुज़रता है
अपने पूरे ख़ुलूस के साथ

साँस लय पर चलती है
समझती है कि तबले की झोंक पे
उतरते चढ़ते
उसको अगली लहर मिलेगी
किनारे की  तरफ जाती

थाम कर चलना तुम मेरी सांस का हाथ
इसकी नब्ज़ तुम्हारी जुम्बिशों की आशना  है