रुक कर फिसलती बात पर
एक शाम का ईमान है
हथेली पे रक्खी लकीरों पे
तेरी उँगलियों के निशान है
क्या वफ़ा क्या उसके उसूल हैं
न सुना न पढ़ा मैंने कभी
पढता हूँ तेरी याद मैं
तू ही मेरी अजान है
बढ़ता हूँ हिस्सा जो तोड़कर
उससे जुड़ा सा रह गया
सीने से निकला था उस घडी
उड़ता धुआं सा रह गया
----आनंद झा----२००९---
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