सोमवार, 31 जनवरी 2011

itivrit-2

न सोचेंगे
चुप्पियों के ढेर में छुपाये गए
मुट्ठी भर  मातम के बारे में
न सुनेंगे और न सुनायेंगे
जो देखा था
हमने खिडकियों से
जब हम छोटे थे

बाथरूम में खुद को कैद कर
भूलने की साजिश करेंगे
और फिर बेवजह रातों में चौंक कर उठ जायेंगे

कहीं जाना नहीं है इन लम्हों को
बस दीवार से टकरा कर कैद रहना है
तुम्हारे अन्दर 

गुरुवार, 27 जनवरी 2011

इस बार जो आये सर्दियाँ 
तो बांध के रखना छप्पर से 

कुछ मौसमों की आदत सी लग जाती है 
इस दर ओ दीवार में जिन्दा हूँ
बंद हूँ इसलिए परिंदा हूँ 

सोमवार, 24 जनवरी 2011

aajkal

गुबार में भी उसकी शक्ल दिखती है
जब भी आते हैं घर चेहरे छोड़ कर जाते हैं लोग
जिन्दगी एक मज़ाक के कहकहे सी चलती रहे
सांस लेने की आदत भी पाल लेते हैं लोग
हमारी बस्ती में अक्सर दिन ढलता नहीं
कालिख पोत कर सूरज पे रात लेते हैं लोग
शहर में छेद हुआ है के रिस रही है भीड़
कतरा दर कतरा धुआं बनते जा रहे हैं लोग

रविवार, 23 जनवरी 2011

raste raste

चुप हूँ के सन्नाटों में दब जाती है 
खामोशियाँ मेरी
भीड़ में खुद को अकेला छोड़ आया हूँ 

टूटे हैं सभी पुल ,अब गर्क-ऐ -दरिया हूँ 
क्या बताऊँ क्यों पुल ये सारे तोड़ आया हूँ 

जीने और मरने के फर्क पे बैठा हूँ मैं बरसों से
बरसों पहले से जीना और मरना छोड़ आया हूँ 

हर एक रिश्ते की खराशें जिस्म पर लादे 
वो घर वो कूचा वो क़स्बा छोड़ आया हूँ 

न हूँ मैं वक़्त से आगे ,न वक़्त से पीछे हूँ 
अपने वक़्त को चादर की तरह ओढ़ आया हूँ 

सोमवार, 10 जनवरी 2011

fracture

टूट कर गिर गयी आखें चेहरे से
बातें तश्तरियों की मानिंद चटक गयी किनारों से
 अब गए दूर जो खुद से
न जुड़ सकेंगे कभी

ये दरारों की सी हरकत नहीं
जो उगती हैं जैसे आता है अकेलापन
एक हमसाये हमसफ़र का मुखोटा लेकर
ये fracture है
एक झटके का ज़ख्म
खुद पे किया गया आखिरी वार

न मरहम न पलास्तार
न सुकुंवर से सुखन
दो हिस्से हैं अनजान से मेरे खुद के
उनमे मैं हूँ दो अलग वजूदों में जीता सा हुआ
सीने में लिए एक fracture

khidkiyan

खिड़की से दिखती है
दुनिया खिड़की जैसी
खुलती है तो फ़ैल जाता कमरे में धूप का रंग

तुमपर बरस रही है धूप की पहली बारिश
चढ़ रहा है न उतरने वाला सुर्ख ताम्बई रंग
खिड़कियाँ तुम्हारी ज़बान , तुम्हारी आखें 
कि जब भी खोलो तो बह चले
नूर ऐ बयार
और हर एक शेह जो सुस्त , मनिन्दा सी थी अब तक
नाच उठे एक चम्पई दुपहरी में

न करो बंद के मुरझा जायेंगे
मन के कोपल
के खिडकियों से ही सही आसमान तो दिखता है

देखे खुदा तुम तक
तुममें खुदी का अक्स आये
खोल दो खिड़कियाँ सारी
के धूप घर आये