मंगलवार, 16 सितंबर 2014

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एक नज़र देख लू
इतना मुक़र्रर कर लू 
इस एक पल के सिवा 
जिंदगी का हासिल क्या 

खर्च यूँ भी होती 
हमने मुहब्बत कर ली 
उम्र भर अब आरज़ू क्या 
जुस्तजू क्या मंज़िल क्या 

हमने तन्हाई सुनी 
हरकतें सुनी तुमने 
मिलके दो चार हुए 
और वफ़ा का मतलब क्या  

gurpa-95

खिड़की की रेलिंग पे जमे पानी
को धीरे धीरे भाप बनता देखता हूँ
चाय की प्याली से लिपटे हाथ उसके
शाल से निकली दो पंखुड़ियां
खिल उठी हों दिसंबर की शाम में
मद्धिम से बल्ब की थिरकन के नीचे

उसको खबर है मेरी आँखों की हलकी जुम्बिश
छू कर उसकी बेफिक्र सी लटों को
वापस किताबों में लौट आएगी
मैं बस एक पल को होता हूँ
उसके एहसास का हिस्सा

बस इतनी शाम काटी थी
गुरपा जंगलों के बीच
भरे डब्बे में एक लम्हा कभी तन्हाई बाटी थी

खुमारी  एक कश में
तेरी आँखों की
ज़माने भर में
खुद का अफ़साना बना बैठे