गारत पड़े इस बेमुर्रवत से दिन को
गुज़र गया जैसे कि कभी आया ही न हो
खिंची पड़ी है ये रात लकीर जैसी हम दोनों के बीच
गुज़रे कोई इस लकीर से तो गुज़र जाए ये रात भी
कभू आया नहीं ख्याल के जगे रह गए थे हम
उम्रें बसर हो गयी इस न ढलती सी रात में
गुज़र गया जैसे कभी आया ही न हो
उस पार लेटा है लकीर के जो
बारहा अपना साया ही न हो
जय श्री कृष्ण...आपके ब्लॉग पर आ कर बहुत अच्छा लगा...बहुत अच्छा लिखा हैं आपने.....भावपूर्ण...सार्थक
जवाब देंहटाएंबहुत खूब, लाजबाब !
जवाब देंहटाएंsabon ki tareef iktthe hi kar rahi hun . swikart karen .
जवाब देंहटाएं