सोमवार, 20 जून 2011

क्यों रास्तों में परदे नहीं टंगे कुहासों के
लोगों की नज़रें दोपहर सी लगती हैं 

मुझे छुपा लो तुम्हारी बेपनाह गलियों में 
मुझे दिखना नहीं है लोगों में 


itivrit5

कुछ नहीं है लिखने को
बेआवाज़ अल्फाजों की पतंगें हैं
छत पे बैठा 
उडाता रहता हूँ हवाओं में 

मेरा नाता नहीं है इनसे अब
ये हवाओं के जने उनके सगे 
इनको किसी दूर देस जाना है 

इनका नाता नहीं है मुझसे अब
मेरे घर में नए अलफ़ाज़ लिए
नए मानी आ गए हैं किराये पे 
पतंगों की तरह दूर कहीं उड़ने को 

रविवार, 12 जून 2011

for manali

दरिया के सिरहाने
लेटे हैं पहाड़
शाम के साए सुलगती सी लौ के एक तरफ

मैं कदम दो कदम सरकता हूँ
उनकी गोद में गुम है घर मेरा
जिसके चेहरे पे एक लालटेन टांगी थी

उस घर में कई लिहाफ पड़े रक्खे हैं
उनमें घुसकर किसी के सिरहाने में
मुझे सुननी है कहानियां हसीन परियों की

मुझे उठकर सुबह अपने मुह से
धुएं के छल्ले फेंकने हैं कुहासों की तरफ
फिर फिसलकर कई इत्मीनान गलियों से
किसी टपरी चाय maggi खाना है......

नहीं लगता है मन तेरे  शहर में अब
मुझे ले चल कहीं पहाड़ों में

गुरुवार, 2 जून 2011

किनारे से अब न कहो दूर कहीं जाने को
बहुत तैरा हूँ मैं बदमिजाज़ लहरों में

कब से देखा किया अपनी ही शकल में उसको
सांस ले ले के याद की उसकी सांसें
पागलपन की हद तक रगडा आब पत्थरों के सीने में

इनकार है मुझको और जूझने से अभी
इनकार है मुझको और जूझने में अभी