रविवार, 12 जनवरी 2014

तुम फ़रिश्ते तो नहीं हो
मैं भी फरिश्तों सा कहाँ 
फिर भी मौके बे मौके 
बहार  आ जाती है 
हमारी महफिलों में 

अब के आये तो ठहर जाना दो घडी के लिए 
एक मुद्दत से बहार  ठहरी है तुम्हारे इंतज़ार में 

बुधवार, 1 जनवरी 2014

साल के सख्त दरख्तों के बीच
महुआ का शोर
उस शोर में कल रात की
हड्डी हिला देने वाली ठण्ड
का जिर्क धूलबस्ता कम्बलों में डूबे हुए सरों और निकलते हुए फटे तलवों से

चट्टानों कि ओट में
मैं अपनी डायरी लेकर बैठा हूँ
पत्थरों में ठंढ है
जो मेरी खाल में रगड़ता है
मेरे रोयों के रास्ते घुसता है मेरे सीने में

मैं बहुत दूर हूँ पलामू  के जंगलों से
जहाँ अब शायद
गोलियों का मौसम गर्म है