बुधवार, 28 अप्रैल 2010

yayavar

फिर बावरे
फिर फिर फिरे
किसकी मडैया ठौर काटेगा रे साले बावरे

उठ गर्द है
उड़ जा कहीं
दुनिया किसी के बाप की जागीर तो ठहरी नहीं

दर दर भटक
घर घर फटक
दरिया बना के भेजा है , बरसात है बह चल कहीं

मस्ती का पुर्जा जिस्म है
दुनिया है टुकड़ा रूह का
चलता फिरे जलता फिरे तकदीर तेरी बस यही

गाता रहा कर बावरे
सोया हुआ ये गाँव है
लगता है मन मेरा के तू आता रहा कर बावरे


---------आनंद झा २०१०--------------------------

untitled

इंतज़ार दबे पांव लौट आया है
बेसबर रात उठ उठ के लौट आती है

अब के जाओ तो बताकर जाना
फ़िक्र से नींद नहीं आती है

बरसते हैं रात भर ज़मीं पे टूटते सैयारे
राख सपनों के पेट में छुपकर

दहकते रहते हैं कुछ बददिमाग अंगारे

थपकियाँ दे के सुलाकर जाना
अब के जाओ तो बताकर जाना

------------आनंद झा २०१०------------

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

on nba's victory over maheswar dam

हर आवाज़ की नोक में हमने
ज़हर लगा कर रक्खा है
जाने किस कागज़ में तुमने
सुबह दबा कर रक्खा है

सरकार बने फिरते हो तुम
हमारे घर के जंगल के
उखाड़ के हमको मिटटी से
concrete में रोपते रहते हो

तुम होते कौन हो #########
किस्मत जो हमारी लिखते हो
दिल्ली में अपनी कुर्सी पे
जाने कितने हाथों बिकते हो

देखेगे तुम्हारा ताब ओ ज़हर
हम देखेंगे दुनिया देखेगी
रुक जाओ कुछ ही बरसों में
गद्दी से उठाकर फेंकेगी

ghar se bhage hue bacche-2 (alok dhanwa ke naam)

कबाडखाना शहर
छोड़ शहर भाग आया
जंग लगे कबाड़ फेफड़ों में फूंकता हूँ दम
खड खड़ा ती हैं सासें
सम्हलती रूकती हैं

एक नयी आदत लगी है जीने की
रंग दिखते हैं
आवाज़ के पर दिखते हैं
चेहरे छील के पहचाने हुए घर दिखते हैं

अब नहीं उठते हैं चौंककर  डरकर
सपने पुरसुकून बहते हैं मेरी नींदों में.

आनंद झा 2010

ghar se bhage hue bacche-1 (alok dhanwa ke naam)

टकरा कर लौट आती हैं उनकी रूहें
एक बेचैन समंदर जैसे पल दो पल
फेंकता रहता है सैलाब किनारे की तरफ

अपनी आवाज़ शहर में
मुहाफ़िज़ की तरह सुनकर
अपनी आखों में भर के concrete के मोतियाबिंद
बड़े होने की तैयारी में
जुट जाते हैं बच्चे

घर से भागे हुए बच्चे
डर कर उठ जाते हैं
कच्ची नींद में जागे हुए बच्चे