रविवार, 11 अक्तूबर 2015

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तुमसे रु बरु होता तो हूँ कई शक्लों में
वाकिफ नहीं हो पाता
नहीं देख पाता तुम्हारी दुनिया
अपनी दुनिया की मुंडेर से उचक कर

या छोड़ दूँ इस दुनिया को कुछ वक़्त के लिए
तुम्हारे वक़्त के लिए

मंगलवार, 29 सितंबर 2015

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न इश्क़ किआ
न काम हुआ
न दिल्ली घूमे
न आया इंक्वालाब

न लाल किला बनाया
न गाड़े झंडे
न फ़कीर बनकर
सड़क पर भीख मांगी

बस बंद रहे
कुछ कमरों में
मकड़े की तरह
बुनते ही रहे
फंसते ही रहे 

-mohabbat 2

आँख भर आंच है
सीने भर दरिया
और मुट्ठी भर सितारे हैं

एक शराब की बोतल है
किताबें हैं
एक उम्र की कहानियां हैं

एक पूरी दुनिया है तुम्हारे हमारे बीच
और देखो तो शायद कुछ भी नहीं है

कुछ मुहब्बतों का मुक्कमल न होना
उनका हासिल है

रविवार, 15 मार्च 2015

ख्वाबगाह कोई नहीं
मैं हूँ  कुछ वक़्त भी ले आया हूँ
कोई कल नहीं न बीता न आनेवाला
आज का लम्बा सफर ले आया हूँ 
बहुत थक से गए हैं
हम तेरे बज़्म में
खर्च कुछ इस तरह हुए
हम तेरे बज़्म में

आये तो मुन्तज़िर थे
एक दीद के तेरे
अब दीद - ए - बरहम हुए
हम तेरे बज़्म में

कुछ इस तरह ज़लील हुए
के उठकर न जा सके
बैठे रहे खत्म हुए
हम तेरे बज़्म में

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

karvat

दरवाज़े की एक फांक
से सुबह छनती हुई
पलकों पर बेचैन हरारतें करती
तेरी ज़ुल्फ़ों में गुम सी जाती है

 इतना सा तिलस्म है हर रोज़ मेरे हिस्से में
जो तेरी उनींदी आँखों ने बांध रक्खा है