रविवार, 2 नवंबर 2014

apne- muh

जाता हूँ के जिन रास्तों पे
कुछ नहीं जाता
गाता हूँ वो धुन अपनी
जिसे कोई नहीं गाता

मैं खुद से प्यार करता हूँ
मैं खुद पे वार करता हूँ

गुमता हूँ मैं गलियों में
के गलियां मुझमें उलझी हैं

लड़ता हूँ पर कायर हूँ
बेहूदा एक desire हूँ

मैं
पल दो पल का शायर हूँ 

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तुम
बहुत दूर चले हो
कितना कुछ लाद रखा है कन्धों पे

थोड़ी देर ठहर जाओ
सुस्ताओ

कुछ छोड़ कर जाओ रास्तों में

कुछ देर निहारो दोपहरी
कुछ देर बिसारो कचहरी
साँस भरो सूखी काया में

तुम
बहुत दूर चले हो

कुछ गाओ
या सुन लो नयी सी आवाज़ें

सर पर थोड़ी छाँव धरो
पैरों में थोड़ा गाँव धरो

पी लो धूप  सुनहरी 

शनिवार, 1 नवंबर 2014

gaya-1

उफ़क़ पर नूर के छींटे
सफर ये किन ख़लाओं का
मेरी छोटी सी खिड़की
और फिसलते रेल के पहिये

मेरे हाथों में कुहासा बन के बैठी है
रात रेशा दर रेशा
सुबह का सुनहरी तार
के तानों  की मुन्तज़िर शायद

ज़िंदगी चक्खी हमने
अमरुद की फालिओं में
रेल के डिब्बों में
मुरारपुर की गलियों में