शनिवार, 13 अक्तूबर 2018

insaan

वो
हर रोज़
थोड़ा घिसता रहा
थोड़ा रिसता रहा

इंसान
बने रहने की
छोटी छोटी कोशिशें
करता रहा

चीखता रहा
फिर चुप होता रहा

फिर सोचता रहा
के कल क्या करना है
परसों क्या करना है

कुछ भी तो नहीं बदल पाया
न खुद के बाहर
न अंदर

मुझे मिलेगा हर रोज़
मेट्रो की कतारों में
मानी तलाशता
माज़ी से लड़ता
शहर से हार कर भाग जाना चाहता
डिस्काउंट लेता
बीमार पड़ता
कभी महान बनने के बारे में सोचता
और
कभी खुद के अंदर सिमट जाना चाहता
इन्सान
और मैं मिलूंगा उससे
जैसे शीशे के सामने खड़ा
अपलक देखता रहूँगा उसको
और यही कहूंगा
इतना ही होता है
इतना ही मिलता है
और ये काफी है
चले चलो
लड़े चलो 

बुधवार, 12 सितंबर 2018

galte logon ke beech

कई बार गलत साबित होना ज़रूरी था
हौसले का टूटना
वज़ूद का टूटना
ख़त्म होना ज़रूरी था

कुछ नहीं
बनने के लिए

कुछ भी बनने के लिए
कुछ नहीं बनना ज़रूरी था 

बुधवार, 27 जून 2018

der raat- subah ki taiyaari mein

तल्ख़ इमरोज़
और हर दिन वही
हारा मैदान
थकन और नींद के बीच
सुकू की मौज़ के थपेड़ों में
मेरे साथ
बहो जाना

ये रवानगी
ये दरिया बहते लम्हों का
ये शोर जो डूब रहा है सूरज के साथ
तुम कहाँ हो जाना के मैंने रोक रक्खी है
वो एक मौज जो आ कर रुकी है साहिल पर
एक उम्र की तल्खियत का नन्हा हासिल

इस शाम
साथ रहो
नींद के आ जाने तक 

गुरुवार, 10 मई 2018

Varis

दश्त का
वारिस हूँ मैं
मेरा काम
याद रखना है
उस लम्हे से जब
ये तय हो चला था
कि  हर शहर उजाड़ होगा
बसेगा एक जैसे लोगों का
एक जैसा शहर
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कुछ वो जुड़े
जिन्हे ख़ुशी थी
किसी और के घर के जलने की
और कि
उन्होंने नहीं किया ये घिनौना काम
बस करवाया

फिर उनके घर की बारी आयी
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आग से मिन्नतें नहीं करते
न वजह देते हैं
आग जब फैलती है
तो लकीरें कहाँ देखती है
ये तुमने खींची ये उसने खींची
तो
वो
मत
जलाओ
जो
बुझा

सको
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हद के आगे दश्त है
वक़्त के आगे दश्त है
हर बियाबान का माज़ी एक बस्ती थी
हर बस्ती का चेहरा एक दश्त है
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मैं याद रखूँगा
ये वक़्त
जब किसी ने
खींची थी छत
और भर दिया था झुलसता आसमान
घर में मेरे
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मैं वारिस हूँ
मेरा काम याद रखना है

मंगलवार, 8 मई 2018

हम गुलशन में लाशों की फसल देख रहे हैं 
जो उग रही है 
हमारी आखों में 
मोतियाबिंद की तरह 

गुज़र जायेगा ये वक़्त 
नफरतों की दो सुईओं पर नाचता 
और हम खड़े होंगे 
ये सोचते हुए 

के हुआ क्या