शुक्रवार, 28 मई 2010

for mom

टुकड़ों में याद रखता हूँ चेहरा तेरा
किफ़ायत से खर्च करता हूँ वो सारे पल
इतनी ही है जो भी जमा पूँजी है
इतने बरसों जो जिए जाना है

मिलेंगे फिर कभी तो बैठकर  सिखाना  मुझे
कि कैसे काटी थी जिंदगी तुमने टुकड़ों  में 
एक नज़र गिरफ्तार
दूर तक खेच कर लाये थे तुम
गीली नज़र पंखे के नीचे रख दी है
बाहर बारिश थमती ही नहीं
न जाने आसमा से किसकी नज़र बरसती है

गड़ती है कभी तेज़ चकाचौंध आतिशी बन कर
कभी बेबाक सी फट पड़ती है सौ फुहार लिए 

कब से ये बेमौसम आशिकी
तुम्हारी आखों के कोनों से हंसती है

रविवार, 23 मई 2010

Ashish bhai ko samarpit

( Ashish Mandloi was a senior activist with Narmada Bachao Andolan and had been the face of movement in Nimad and other places facing acute submergence and loss of livelihood due to the project. I had the pleasure of working with him during 2004-2007.he passed away last friday )

उठती नहीं आवाज़ कोई
डर की सिसकारी भी नहीं
रुक रुक के गिर जाती है हरसू
सांस भारी भी नहीं

एक लय सी सुबह उठ गयी
एक भैरवी सी बह चली
जब तुम चले बातें चली
सुबहें चली रातें चली
मनिबेली के कसबे चले
बडवानी की राहें चली
दिल्ली चले हर ओर से
टूटे दिलों के पोर से
उठा के कोई न फ़ेंक दे
लाठी वकील के जोर से..

तुम लड़ चले
उन हजारों बेघरों के वास्ते
तुम लड़ चले
खोले जहाँ बरसो थके थे रास्ते
तुम लड़ चले
जब हर हार से जीत का रास्ता खुला
तुम जल चले
जब भी अँधेरा रात से गहरा हुआ

संघर्ष जी कर तुम चले
संघर्ष न होगा ख़तम
आशीष मंडलोई आगे बढ़ो
लड़ेंगे हम जीतेंगे हम

शुक्रवार, 7 मई 2010

ab mujhe koi intzaar kahan (misra gulzaar sahab ki izazat se)

ढल के छूट गया जब तुम्हारे साए से
रेत ही रेत हूँ मैं
मुन्तजिर एक आंधी का

तुम्हारे पैरों के निशान बचा के रक्खे हैं
बहारें भी तो यहाँ आँधियों सी चलती है
न जाने किस बहार में उखड चलूँ अगले दर तक

पिरो के आदतें पहन ली जिन्दगी गले में
फिरा के इनको जपता रहूँगा नाम तेरा

वो जो बहते थे आबशार कहाँ
अब मुझे कोई इंतज़ार कहाँ
गारत पड़े इस बेमुर्रवत से दिन को
गुज़र गया जैसे कि कभी आया ही न हो

खिंची पड़ी है ये रात लकीर जैसी  हम दोनों के बीच
गुज़रे कोई इस लकीर से तो गुज़र जाए ये रात भी

कभू आया नहीं ख्याल के जगे रह गए थे हम
उम्रें बसर हो गयी इस न ढलती सी रात में

गुज़र गया जैसे कभी आया ही न हो
उस पार लेटा है लकीर के जो
बारहा अपना साया ही न हो

बुधवार, 5 मई 2010

रात के इस छोर से उस छोर तक लम्बी
सूखती साडी तुम्हारी
कूदती हैं मछलियाँ गाते हैं मेंढक
कल इस्तरी की मेज़ पर चला कर एक तपता लोहा
ख़त्म कर डालोगे एक रात का तिलस्म तुम

गायेगा कौन फिर सूखते हुए छत पे

mandir ke saamne

पिछले दस साल में
ख़त्म हो गए सारे लोग
धीरे धीरे धुआं पीते
किश्तों में जीते
बोलो गोविन्द
गोविन्द देता है कैंसर
दर्द के हलाहल की wholesale agency का ठेकेदार
तय किया था हमने
हम एक दूसरे के रास्ते नहीं आयेगे
मगर हलाहल के ऊपर के wrapper का आकर्षण 
और उसकी न जाने वाली लत
सबको राखे गोविन्द
वोही पिलावे वोही जिलावे
अजीब गैरजिम्मेदार सिस्टम है यार तुम्हारा..
और मेरी मजबूरी है हर दिन
तुम्हारी ड्योढ़ी पे सलाम ठोक कर गुज़ारना
क्या हिसाब बैठाये हम अपने बीच
तुम भी जिओ हम भी जियें
बोलो गोविन्द