सोमवार, 30 अप्रैल 2012

shehrana

चाक दामन परेशां सी
मजलूम आवाजें 
नींद से पहले 
अपने सीने से आती लगती हैं 

खुद के कानों पे देता हूँ थपकियाँ 
पंखे से कहता हूँ आज रात सुला दे लोरी देकर 
कल रात तक कुछ इंतज़ाम कर लेंगे 
नीद से कब तक रस्म ओ राह न हो 

क्या बताऊँ कौन नामुराद मेरे अन्दर छिप कर 
चीखता रहता है अँधेरे सन्नाटों में 
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सच के टूटे टूटे टुकड़े 
तलवों पे चुभ जायेंगे 

फर्श पे धब्बे हैं सिसकियों के कई 

साफ़ नहीं करते हो अपना कमरा 
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रेंग के कल तक जायें कैसे 
कितनी दूर सुबह है अपनी 

कितने पास अँधेरे अपने 

बुधवार, 25 अप्रैल 2012

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वाजिब है कि तुम न पहचानो मुझे 
मैं शक्ल से भीड़ जैसा दिखता हूँ 

वाजिब है आवाजें न दो न बुलाओ 
मैं हवाओं से अब गुफ्तगू  कहाँ करता हूँ 

ये भी वाजिब है छोड़ दो तनहा मुझको 
मैं जिन्दगी के बहाने कहाँ ढूँढा करता हूँ 

मैं सफ़र याफ्ता हूँ मुन्तजिर नहीं मंजिलों का
ये भी वाजिब है इंतज़ार न करो तुम मेरा

मगर मैं डरता हूँ दूरियों से बहुत
ये डर मुझ अकेले का तो नहीं 

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आये हैं अलफ़ाज़ तेरे लबों पर 
दुआ जैसे रफ्ता रफ्ता क़ुबूल होती है 

एक हलकी सी जुम्बिश और एक आवाज़ बिखर जाती है 
अपने पलकों के कालीन पे समेट लेता हूँ उनको 
मैंने अपने अश्कों में तेरे सवाल पिरो रक्खे हैं 

उन्ही बंद आखों से शुरू करें 
आधी बातों के पूरे अफ़साने 
तुम्हे पता भी न हो शायद 
मैं तुमसे कितनी बातें करता हूँ 

फाख्ता हो जायेंगी ये यादें कभी 
रोमांस बूढी कहानियों सा हो जायेगा 
पर आवाजें जब थामा करेंगी मुझको 
अपने लबों का लोबान जला कर 
बुलाया करूँगा तुमको दूर पहाड़ियों से मैं 

पहचान लो तो चाय पीने आ जाना 

गुरुवार, 19 अप्रैल 2012

antim aranya

सौ आँखों से देखता हूँ तुमको
तुम डरा न करो
मैं बस देख सकता हूँ
आँखों का गुच्छा हूँ मैं

कीड़ा हूँ
मुझे रेंगता रहने दो एक कोने में
तुम मेरी दिनचर्या हो
मैं तुम्हारी दिनचर्या हूँ

दो कांटे हैं एक पुरानी दीवाल घडी के हम
दोनों हों तो वक़्त गुज़र जाता है 

malhar1

पहाड़ों में 
बौने होते हम 
शाम को बारिश के साथ 
अपनी आवाजें मिलाते  
दोनों 
बत्तियां तेज़ नहीं हैं 
कहीं ठिठुर सी रहीं हैं 
खिडकियों पर
ऊनी शाल में 
अपना गट्ठर बनाते 
एक कुर्सी पर जम सा गया हूँ 
चट्टानों के पीछे से बहती हुई धुंध 
फैलती जा रही है बस्तियों में 

सायकिलें  चिपक गयीं हैं छज्जे वाली खिडकियों से 
आखिरी मुसाफिर पान की दुकानों के आसरे 
बतियाने में मशगूल 
एक रेडिओ खोजता है ग़ुम आवाजें 
बदराए आसमानों में 

एक दिन अचानक 
कैसे बदल जाते हैं मौसम 

रविवार, 8 अप्रैल 2012

main shayar toh nahin

पता नहीं अलफ़ाज़ कैसे जीते हैं
मैं बस कलम से घरोंदे बनाता हूँ उनके
उनसे सुनता हूँ फिर फुसफुसाता हूँ पन्नों के कानों में

मैं शायर तो नहीं