शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

सिलसिलेवार तरीके से घट रही थी
हमारे आस पास 
हम उसे जिंदगी बुलाते रहे
बच्चे स्कूल जाने से डरने लगे 
अखबार टोइलेट की तरह साफ़ 
पड़ोस से अचानक लोग गायब होने लगे 

जो आता रहा टीवी पे 
बेचता रहा डर
अलग अलग शक्लों में 
हर चीज़ के लिए मशक्कत 
जीना मुश्किल हुआ
फिर बेमतलब 

फिर आदतों का एक मुल्क बनता गया 
बेमतलब बेतरकीब बेहिसाब बढ़ता हुआ
एक घाव 
जिसकी टीस की लत में धुत
एक पूरा देश नीद से जगाने वालो की माँ बहन करता हुआ
सोता रहा 


coma में लेटे 
अपने मुल्क की उनींदी पलकों से 
मक्खियाँ भगाते हुए
सिलसिलेवार तरीके से
तीस साल का हो गया

सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

Haasil

उम्र भर चले जिन रास्तों पे हम 
हासिल क्या उन रास्तों का 
कहानियों के सिवा 

कभी सोचता हूँ
और क्या होता हासिल 
दूसरे रास्तों पर 
जिन्हें हम देखा करते थे छत पर खड़े होकर 
तेज़ रफ़्तार से फिसलती थी ज़माने की गाड़ियाँ जिसपर 

अपने अपने हिस्से की रवानियाँ है 
न सुनी हो मैंने 
पर उधर भी 
हासिल 
कहानियां हैं 

किसकी कहानियों का किरदार था मैं 
किसके प्लाट का खलनायक 
अनजाने में किसकी चीखों का गला घोटा मैंने 
एक दूसरे में गुत्थमगुत्था 
ये किनकी कहानियों के जाल में बुना मैंने
अपनी जिंदगी का तार 
और उधेड़ दी किसकी चादर 
अपनी डोर खींचते हुए 

राम 
पतंग से लगता तो उड़ता 
या बुना रहता किसी की चादर में...
 सोचता तो भी क्या .....
क्या हासिल...किसकी कहानियां ...क्या रास्ता...

रविवार, 6 फ़रवरी 2011

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रात को बिस्तर में बडबडआते हुए
जो भी निकला था खुदा खैर करे
थोडा सच था तुम्हारे बारे में
थोडा सच था हमारे बारे में

नींद कमबख्त जगाती है रात भर हमको
झपकियाँ थपेड़ों  सी आती हैं चली जाती हैं
शिकायत करते हैं के गुम जाये रजाई में कहीं
चादर के साथ धुल जाये किसी सन्डे को

छुप के सो जाऊंगा धूप तले
नींद के साथ मेरा खेल बरसों से जारी है