-मुशायरा-
हिन्दुस्तानी कवितायेँ - आनंद झा
मंगलवार, 19 जुलाई 2022
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खाली सीना
तेरी याद
तेरा होना जैसे ओस सा
लम्हे में शुरू
लम्हे में ख़त्म
फिर उन यादों की तहें
जिन्हें खोलना
इस्तरी करना और रख देना
अपने ज़हन के किसी हिस्से में
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ये बेमतलब है
या ये तरीका है हमारे होने का
रविवार, 6 जून 2021
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कितना दुखता है
ये वक़्त
कितने अकेले हैं सभी
सब डरे से हैं
कोई उनको समझता ही नहीं
वो समझ जाएं किसी को
इतना वक़्त नहीं
किसी के मरने
की शर्त पर
हर रोज़
मैं खरीदता हूँ ज़िंदगी
और खोजता फिरता हूँ
उसमें भरने के लिए रंग
क्या कोई और वक़्त
कभी था
मुक्कमल सा
जिसकी शक्ल हमने
फिल्मों भी भी देखी थी
जहाँ लोग अच्छे और बुरे होते थे
यहाँ तो सारे हादसों के मारे
बुझे थके हारे
लड़ते काटते कटते
लाचार लोग हैं
अपनी ही कहानी में
गिरफ्तार लोग हैं
शुक्रवार, 21 अगस्त 2020
aakhir
कतरा ले कर जाइयो
हम उसमें रक्खे बैठे हैं
जितना है अपना
जाता है
तो बह जायेगा
दिल दरिया
फिर खर्च ज़िंदगी कर के हम
किसी नदी किनारे बैठेंगे
जैसे भी होगा
गायेंगे
जो बचा है
जीते जाएंगे
सोमवार, 15 जून 2020
neend
मेरा दिमाग
एक रेलवे प्लेटफार्म की तरह बिछा होता है
कुछ ख्याल चलते रहते हैं पैसिंजरों की तरह टहलते रहते हैं
पूरी रात
कुछ यादें ट्रेनों की तरह आती हैं
नींद नहीं आती
ये उम्र
इतनी लम्बी थकान
के कोई सो भी जाये बरसों
तो ख़त्म न हो
सोचता हूँ के कर लू वास्ता
फूल पत्तियों से
लोगों से बाज़ आऊं
क्या वक़्त है
जो टंगा रहता है
दम घोंटता है
गुज़रता भी नहीं
बदलता भी नहीं
शुक्रवार, 22 मई 2020
April 2020
नंगे पैर थे
और सर पर
एक पूरा घर
और चिलचिलाती धूप
क्यों लोग थालियां बजाते रह गए
जब रेलगाड़ी कुचल गयी उसका चेहरा
क्यों उसके खेतों का गेहूं
सड़ गया सरकारी गोदामों में
पर नहीं आया उसके काम
कभी जिन इमारतों के लिए
उसने ईटें ढोयीं
उनके दरवाज़े नहीं खुले
उसके लिए
किसका था ये मुल्क
जो उसका न हुआ
किसके थे ये लोग
जो उसके न हुए
शनिवार, 11 जनवरी 2020
insomnia
दस्तावेज़ों की तरह गुथे हुए
रखे हैं ऐसे
जैसे मालगाड़ी का एक खाली डब्बा
एक अध् गुमी रेल की पटरी पर
खड़ा रहता है
ऐसा इंतज़ार किसका किया है
लोगों का, हालातों का, चीज़ों का, मौसमों का
कौन छांटेगा ये बैरंग सपने
रवाना करेगा इन्हें
नींद की डाक पर
arzi
मुझसे इश्क़ करो
बड़ा इंतज़ार किया है मैंने
तुम्हारे तैयार होने का
मुझे बना लो अपनी सारी दुनिआ
बस मेरी बात सुनो
बस मेरा ज़िक्र करो
मुझे दे दो अपने ये सारे मौसम
ये गुनाहे अज़ीम भी कर लो
ये गुनाहे अज़ीम भी कर लो
subah
हम अपनी सुबह
टेलीफोन के तारों में पिरो कर
चलें काफी दूर
और देखते चलें
क़दमों के तले
पार्कों में बिखरे हुए
यतीम लम्हों को
घर ले चलें
rishta
हक़ नहीं है
एक पेड़ की छाँव
क्या पेड़ का इरादा है
या उसके वज़ूद का हिस्सा
क्या पेड़ इंकार कर सकता है
छाँव देने से
क्या हम-तुम
अलग हैं
पेड़ों से
क्या मुहब्बत आदमी की फितरत है
या उसका इरादा