गुरुवार, 19 सितंबर 2013

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एक फलक 
काफी है 
जिन्दगी भर की शर्मिंदगी के लिए 
कितने फलक टांगे तूने 
अपने पास बुलाने को  

मैं बस सर उठा कर देख सकता हूँ 
जो उड़ता तो क्या उड़ता 

कितने सवेरे लिख डाले तेरे नाम 
सारे बेरंग लौट आये हैं 
फीके कसैले सवेरे 
बेहूदे बरसातिये 

बंद दरवाज़ों से जवाबों में सुराख़ कर कर के 
और दरवाज़े ही देखे मैंने 
अपनी शामों के चाक सीनों पर 
सपनों की कितनी मोमबत्तियां गलाई थी 

अपने नीमबाज़ सपने में 
तुझसे जाने क्या क्या न मांग बैठा मैं 

शर्म और बदरंग मौसम के बीच मैं 
तुमसे हुआ एक हादसा हूँ 
और तुम्हें सनद भी नहीं 
के तुमने आसमान टांगा था 

जिंदगी बड़े  दिल तोड़े हैं तुमने
 
ये मेरा भी है 
हाज़िर है 
आगे के लिए क्या बांधूं  मैं
डर के इस गट्ठर के सिवा

डर की छांव में पला बढ़ा
उससे बाहर कैसे निकलूं  मैं

कैसे उड़ जाऊं पंखों बिन




Albert camus ke liye-2

जितनी भी लड़ी
किसी और की लड़ाइयाँ लड़ी

अपनी ज़मीन का कभी पता नहीं माँगा
अपनी वजह की कोई सूरत नहीं देखी

बेवजह हूँ आज
और सोचता हूँ
आगे कैसे चलूँ
कब तक बैठूं
नदी के किनारे पर

किसकी लडूं लड़ाइयाँ
खुद की बना के मैं
अनगिनत रिमोट कण्ट्रोलों के अंत में एक यांत्रिक वध
किसका करूँ

किसको मारूं किससे मरुँ
या बेवजह जियूं 

रविवार, 1 सितंबर 2013

sawaal

कितनी दूर खड़े है 
रास्तों के पत्थर 
पैगम्बर नुमा 
एक के बाद दूसरा पत्थर 
और एक जलती सड़क 

इतने सालों की कमाई 
सिर्फ थकन 
और डर 
हर उस रास्ते से 
जो सीधा नहीं जाता 

इन रोज़मर्रा की आदतों के परे 
उसके बदलने के डर से परे 
मैं कौन हूँ