गुबार में भी उसकी शक्ल दिखती है
जब भी आते हैं घर चेहरे छोड़ कर जाते हैं लोग
जिन्दगी एक मज़ाक के कहकहे सी चलती रहे
सांस लेने की आदत भी पाल लेते हैं लोग
हमारी बस्ती में अक्सर दिन ढलता नहीं
कालिख पोत कर सूरज पे रात लेते हैं लोग
शहर में छेद हुआ है के रिस रही है भीड़
कतरा दर कतरा धुआं बनते जा रहे हैं लोग
जब भी आते हैं घर चेहरे छोड़ कर जाते हैं लोग
जिन्दगी एक मज़ाक के कहकहे सी चलती रहे
सांस लेने की आदत भी पाल लेते हैं लोग
हमारी बस्ती में अक्सर दिन ढलता नहीं
कालिख पोत कर सूरज पे रात लेते हैं लोग
शहर में छेद हुआ है के रिस रही है भीड़
कतरा दर कतरा धुआं बनते जा रहे हैं लोग
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें