सोमवार, 24 जनवरी 2011

aajkal

गुबार में भी उसकी शक्ल दिखती है
जब भी आते हैं घर चेहरे छोड़ कर जाते हैं लोग
जिन्दगी एक मज़ाक के कहकहे सी चलती रहे
सांस लेने की आदत भी पाल लेते हैं लोग
हमारी बस्ती में अक्सर दिन ढलता नहीं
कालिख पोत कर सूरज पे रात लेते हैं लोग
शहर में छेद हुआ है के रिस रही है भीड़
कतरा दर कतरा धुआं बनते जा रहे हैं लोग

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