चुप हूँ के सन्नाटों में दब जाती है
खामोशियाँ मेरी
भीड़ में खुद को अकेला छोड़ आया हूँ
टूटे हैं सभी पुल ,अब गर्क-ऐ -दरिया हूँ
क्या बताऊँ क्यों पुल ये सारे तोड़ आया हूँ
जीने और मरने के फर्क पे बैठा हूँ मैं बरसों से
बरसों पहले से जीना और मरना छोड़ आया हूँ
हर एक रिश्ते की खराशें जिस्म पर लादे
वो घर वो कूचा वो क़स्बा छोड़ आया हूँ
न हूँ मैं वक़्त से आगे ,न वक़्त से पीछे हूँ
अपने वक़्त को चादर की तरह ओढ़ आया हूँ
अपने वक़्त को चादर की तरह ओढ़ आया हूँ
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ....शुभकामनायें