मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

kuch khali se kamre

खुलता है दरवाज़ा 
सांस छोड़ते हैं जैसे 
कुछ खाली कमरे 

मैं रोज़ रात आता हूँ
सुबह निकल जाता हूँ 
अपना कबाड़ इनके फेफड़ों में छोड़ कर 

इनसे बात भी नहीं करता 
एक मजबूर शादी की तरह 
हम दोनों बस रात को नीद का बहाना कर 
एक दूसरे को बर्दाश्त करते हैं 

कोशिश करता हूँ इनको भरू
चीज़ें खरीद कर ठूस देता हूँ उनके अन्दर 
मगर कुछ दिन बाद वो भी इस खालीपन का हिस्सा बन जाती हैं 

कुछ दिन पहले एक चूहा भी आया था इनमे रहने 
कचरे के ढेर में निकली उसकी मैयत 
अब फिर अकेले हैं 
ये कमरे और मैं 


2 टिप्‍पणियां: