सोमवार, 19 सितंबर 2011

summations

हम गुज़रते रहे हैं 
इन दरख्तों के बीच 
तुम्हारी याद की पगडंडियों पर 

वक़्त कमबख्त गुज़रता ही नहीं 
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मंदिर में बंधी चुन्नियों में 
तुम्हारा नाम लेकर 
अनगिनत गिरहें बांधी मैंने 

एक गिरह आ कर खोल जाना , मैंने जिंदगी बांधी है कहीं
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अपना रसूख है 
वफ़ा personal होती है मियां 

प्यार खुद में रखो तो दर्द नहीं होता है
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न रस्ते बनाये 
न चला किसी के क़दमों पर 
यहीं खड़ा रहा नुक्कड़ के नीम तले

ज़माने आज भी चुप चाप ही फिसलते हैं
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