सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

Haasil

उम्र भर चले जिन रास्तों पे हम 
हासिल क्या उन रास्तों का 
कहानियों के सिवा 

कभी सोचता हूँ
और क्या होता हासिल 
दूसरे रास्तों पर 
जिन्हें हम देखा करते थे छत पर खड़े होकर 
तेज़ रफ़्तार से फिसलती थी ज़माने की गाड़ियाँ जिसपर 

अपने अपने हिस्से की रवानियाँ है 
न सुनी हो मैंने 
पर उधर भी 
हासिल 
कहानियां हैं 

किसकी कहानियों का किरदार था मैं 
किसके प्लाट का खलनायक 
अनजाने में किसकी चीखों का गला घोटा मैंने 
एक दूसरे में गुत्थमगुत्था 
ये किनकी कहानियों के जाल में बुना मैंने
अपनी जिंदगी का तार 
और उधेड़ दी किसकी चादर 
अपनी डोर खींचते हुए 

राम 
पतंग से लगता तो उड़ता 
या बुना रहता किसी की चादर में...
 सोचता तो भी क्या .....
क्या हासिल...किसकी कहानियां ...क्या रास्ता...

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