शाम तक बरसता रहा
अब पत्तों पे जा के अटका है
एक घडी को ठहरा है ये बूंदों का काफिला
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रात ऐंठी रही
बैठी रही दरवाज़े पे
सुबह की ट्रेन तुम्हारी ज़रूर छूटेगी
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अकेला हो गया है बूढा बरगद
न पत्तियां न घोसले चिड़ियों के
लकडहारे ने तेज़ की कुल्हाड़ी अपनी
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