शनिवार, 3 सितंबर 2011

Triveni

शाम तक बरसता रहा 
अब पत्तों पे जा के अटका है

एक घडी को ठहरा है ये बूंदों का काफिला 
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रात ऐंठी रही 
बैठी रही दरवाज़े पे

सुबह की ट्रेन तुम्हारी ज़रूर छूटेगी 

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अकेला हो गया है बूढा बरगद 
न पत्तियां न घोसले चिड़ियों के

लकडहारे ने तेज़ की कुल्हाड़ी अपनी 
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