दरिया के सिरहाने
लेटे हैं पहाड़
शाम के साए सुलगती सी लौ के एक तरफ
मैं कदम दो कदम सरकता हूँ
उनकी गोद में गुम है घर मेरा
जिसके चेहरे पे एक लालटेन टांगी थी
उस घर में कई लिहाफ पड़े रक्खे हैं
उनमें घुसकर किसी के सिरहाने में
मुझे सुननी है कहानियां हसीन परियों की
मुझे उठकर सुबह अपने मुह से
धुएं के छल्ले फेंकने हैं कुहासों की तरफ
फिर फिसलकर कई इत्मीनान गलियों से
किसी टपरी चाय maggi खाना है......
नहीं लगता है मन तेरे शहर में अब
मुझे ले चल कहीं पहाड़ों में
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