शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

तेरे शहर की हवाओं से ये दरयाफ्त करता हूँ
वोही जो दूर किसी गुमनाम वतन से
समुन्दर के ऊपर बहती हुई
उड़ाती रहती है मेरे छत पे सूखते हुए कपडे

मैं भी किसी गुमनाम वतन का बाशिंदा हूँ
किस कदर आया इस शहर में मुझे मालूम नहीं
नहीं लगता है मुझको अपना यहाँ कुछ भी
कैसे जाते हैं वापस लौट के खुद के घर को

अजनबी होता हूँ हर उस घर में
जिसे अपना घर बुलाया करता था
समंदर हैं या पहाड़ हैं मेरे
या खेत हैं लहलहाते मीलों फैले
या पतली संकरी गलियां है तंग रस्ते हैं
या शीशे के मीनार जिसमें फिलहाल आजकल मैं रहता हूँ

हवाओं से पूछता हूँ हर रोज़ छत पे मैं
कैसे खानाबदोश हो के जीते हैं 

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