रविवार, 25 मार्च 2012

nirmal verma ki kahaniyon sa

निर्मल वर्मा से मेरा लगाव नहीं जाता. काफी आलोचकों के उन्हें ख़ारिज किया है. एक आउट ऑफ़ कांटेक्स्ट अंग्रेजी नोवेलिस्ट को हिंदी कहानी के characters dilute करने वाला बताया है. मैं एक साधारण पाठक हूँ और मेरा मत इन तरह की arguments में शुमार नहीं हो सकता . मेरा लगाव काफी personal है . मैं उनको पढ़ते पढ़ते शायद उनकी कहानियों का एक किरदार सा बन गया हूँ.  अकेला बेलौस रोमांटिक ..जो दुनिया को बस दूर से उठते ढलते देख सकता है , हाशिये से प्यार कर सकता है , एक कम रफ़्तार कहानी का किरदार जिसका अन्य किरदारों से एक situational सहमति का रिश्ता होता है.

मेरे लिए इस तरह की जिंदगी का सामना सिर्फ उनकी कहानियों में हुआ था, और आज खुद एक ऐसी ही कहानी की गिरफ्त में आ जाना आधी अजनबियत जैसा है , आपने देखा तो है पर कहाँ देखा मालूम नहीं. 
इन कहानियों को आधा पढ़ कर किताब सिरहाने रख सकते थे, पर जिंदगी का क्या करें, सिरहाने पर भी रखो तो लगता है कोई साथ सो रहा है.
काफी अरसे से देखना भी जाता रहा है ...तो डिटेल की परख नहीं मिल पाती. अमूमन वोही बातें दोहराता रहता हूँ. उनकी किताबों में भी कई बार वोही किरदार अलग अलग कहानियों में मिले हैं ; लाल टीन की छत; अंतिम अरण्य .....मगर दुहराव में भी एक चाव है , एक minute सा फर्क , वोही देखा है मगर कहाँ देखा है  वाला एहसास .

अगर आप कुछ ऐसे देख/जी रहे हैं तो ज़रूर बताएं ....
शुभरात्रि

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