गुरुवार, 19 अप्रैल 2012

malhar1

पहाड़ों में 
बौने होते हम 
शाम को बारिश के साथ 
अपनी आवाजें मिलाते  
दोनों 
बत्तियां तेज़ नहीं हैं 
कहीं ठिठुर सी रहीं हैं 
खिडकियों पर
ऊनी शाल में 
अपना गट्ठर बनाते 
एक कुर्सी पर जम सा गया हूँ 
चट्टानों के पीछे से बहती हुई धुंध 
फैलती जा रही है बस्तियों में 

सायकिलें  चिपक गयीं हैं छज्जे वाली खिडकियों से 
आखिरी मुसाफिर पान की दुकानों के आसरे 
बतियाने में मशगूल 
एक रेडिओ खोजता है ग़ुम आवाजें 
बदराए आसमानों में 

एक दिन अचानक 
कैसे बदल जाते हैं मौसम 

1 टिप्पणी: