पहाड़ों में
बौने होते हम
शाम को बारिश के साथ
अपनी आवाजें मिलाते
दोनों
बत्तियां तेज़ नहीं हैं
कहीं ठिठुर सी रहीं हैं
खिडकियों पर
ऊनी शाल में
अपना गट्ठर बनाते
एक कुर्सी पर जम सा गया हूँ
चट्टानों के पीछे से बहती हुई धुंध
फैलती जा रही है बस्तियों में
सायकिलें चिपक गयीं हैं छज्जे वाली खिडकियों से
आखिरी मुसाफिर पान की दुकानों के आसरे
बतियाने में मशगूल
एक रेडिओ खोजता है ग़ुम आवाजें
बदराए आसमानों में
एक दिन अचानक
कैसे बदल जाते हैं मौसम
bahut achhi panktiyan...:)
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