शनिवार, 1 नवंबर 2014

gaya-1

उफ़क़ पर नूर के छींटे
सफर ये किन ख़लाओं का
मेरी छोटी सी खिड़की
और फिसलते रेल के पहिये

मेरे हाथों में कुहासा बन के बैठी है
रात रेशा दर रेशा
सुबह का सुनहरी तार
के तानों  की मुन्तज़िर शायद

ज़िंदगी चक्खी हमने
अमरुद की फालिओं में
रेल के डिब्बों में
मुरारपुर की गलियों में 

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