सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

कुछ आखिरी रस्तों की जानिब से
सुन लेता हूँ
चहलक़दमियाँ

इनके बीच में तन्हाई के तहखानों से
हज़ार चुप्पियों का दर्द फूट पड़ता है

मैं बस  अक्षरों का भड़वा हूँ
देखता हूँ ,  डर कर भाग जाता हूँ 

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