रविवार, 11 जून 2017

वो देखती  भी नहीं
मैं दरिया सा बहा जाता हूँ
वो किनारे पे खड़ी
दिन को शाम करती है

उसकी बातें दिए सी जलती रहती हैं
बारिश में गूंजते हैं झींगुर
मैं किताब के पन्नों में
उसकी शक्ल डाल कर बैठा हूँ

दुनिया हर रोज़
फ़र्क़ बढ़ा देती है
हौसले मिटा देती है

मुहब्बतें मेरी बैरंग चिट्ठियों की तरह
घूम कर मेरे सिरहाने आती है
कहानियां सुनती है
 सुबह के धुंधलके में
कहीं दूर निकल जाती है 

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