सोमवार, 30 अप्रैल 2012

shehrana

चाक दामन परेशां सी
मजलूम आवाजें 
नींद से पहले 
अपने सीने से आती लगती हैं 

खुद के कानों पे देता हूँ थपकियाँ 
पंखे से कहता हूँ आज रात सुला दे लोरी देकर 
कल रात तक कुछ इंतज़ाम कर लेंगे 
नीद से कब तक रस्म ओ राह न हो 

क्या बताऊँ कौन नामुराद मेरे अन्दर छिप कर 
चीखता रहता है अँधेरे सन्नाटों में 
--------------------------------------------------------

सच के टूटे टूटे टुकड़े 
तलवों पे चुभ जायेंगे 

फर्श पे धब्बे हैं सिसकियों के कई 

साफ़ नहीं करते हो अपना कमरा 
---------------------------------------------------------
रेंग के कल तक जायें कैसे 
कितनी दूर सुबह है अपनी 

कितने पास अँधेरे अपने 

1 टिप्पणी: