शनिवार, 30 नवंबर 2013

समाज ने जैसा बनाया नर मुझे
आज विकृत हूँ
ये कहते हैं
कई
तो कैसा बनू अब
कोई अपने आसपास
वैसा नर नहीं
कैसे निकालूं विकृति
जो मेरे खून के साथ
घुलती है
बदन में मेरे
जो मेरे दो टुकड़े करती है
फिर फ़ेंक कर अखाड़े में
लड़वाती है
मुझी को मुझ से
और फिर एक झटके में
जरासंध सी जुड़ जाती है
मेरी आकृति में

सखी ये तो निष्कर्ष है जो तुम्हारा
उसके आगे
वध्य हूँ
ये लो खंजर
और बताओ
कितना काटूं
कैसे काटूं
कैसे बनू मैं
मर्द

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