गुरुवार, 19 सितंबर 2013

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एक फलक 
काफी है 
जिन्दगी भर की शर्मिंदगी के लिए 
कितने फलक टांगे तूने 
अपने पास बुलाने को  

मैं बस सर उठा कर देख सकता हूँ 
जो उड़ता तो क्या उड़ता 

कितने सवेरे लिख डाले तेरे नाम 
सारे बेरंग लौट आये हैं 
फीके कसैले सवेरे 
बेहूदे बरसातिये 

बंद दरवाज़ों से जवाबों में सुराख़ कर कर के 
और दरवाज़े ही देखे मैंने 
अपनी शामों के चाक सीनों पर 
सपनों की कितनी मोमबत्तियां गलाई थी 

अपने नीमबाज़ सपने में 
तुझसे जाने क्या क्या न मांग बैठा मैं 

शर्म और बदरंग मौसम के बीच मैं 
तुमसे हुआ एक हादसा हूँ 
और तुम्हें सनद भी नहीं 
के तुमने आसमान टांगा था 

जिंदगी बड़े  दिल तोड़े हैं तुमने
 
ये मेरा भी है 
हाज़िर है 

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