सोमवार, 7 मार्च 2011

itivrit 3

मैं बहना चाहता हूँ 
मगर दरिया नहीं हूँ 
पत्थर हूँ 
एक बरसाती नदी की राह में बैठा 
इंतज़ार कर रहा हूँ सावन के बरसने का 

ऐसे कई मौसम 
जब गुज़र जायेंगे तब 
शायद पहुच जाऊंगा तुम्हारे शहर तक 
मुझे उठा कर तराशना मत 
मैंने नदी के साथ बहकर 
वक़्त के साथ एक शक्ल पाई है
ये चेहरा नहीं है इतिहास है मेरा, मेरा इतिवृत 
बस पड़े रहने देना नदी के किनारे
ताकि उन आखिरी दिनों में थोडा सुस्ता सकूं मैं

खैर ये काफी देर की बातें हैं 
अभी देखें कितने घुमड़ कर आते हैं बादल 
अगले महीने में 

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