मलबा ही आखिरी पड़ाव है
हर ईमारत का
फिर भी कितनी इमारतें खडी करता है
हर बार आदमी
और हर बार
बनाने का रोमांस
गिराता है एक बने ईमारत की नीव
सत्य किसी भी ईमारत का
उसके होने में नहीं
उसके बनने और बिगड़ने में है
उस dialectic में है
जो देख रही है
ऐसी कई अनगिन इमारतों को
बनते बिगड़ते हुए
हर ईमारत का
फिर भी कितनी इमारतें खडी करता है
हर बार आदमी
और हर बार
बनाने का रोमांस
गिराता है एक बने ईमारत की नीव
सत्य किसी भी ईमारत का
उसके होने में नहीं
उसके बनने और बिगड़ने में है
उस dialectic में है
जो देख रही है
ऐसी कई अनगिन इमारतों को
बनते बिगड़ते हुए
bahut bahut pasand aaya...:)
जवाब देंहटाएंThanks Shwetambara
जवाब देंहटाएंThanks Shwetambara
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