शनिवार, 13 अक्तूबर 2018

insaan

वो
हर रोज़
थोड़ा घिसता रहा
थोड़ा रिसता रहा

इंसान
बने रहने की
छोटी छोटी कोशिशें
करता रहा

चीखता रहा
फिर चुप होता रहा

फिर सोचता रहा
के कल क्या करना है
परसों क्या करना है

कुछ भी तो नहीं बदल पाया
न खुद के बाहर
न अंदर

मुझे मिलेगा हर रोज़
मेट्रो की कतारों में
मानी तलाशता
माज़ी से लड़ता
शहर से हार कर भाग जाना चाहता
डिस्काउंट लेता
बीमार पड़ता
कभी महान बनने के बारे में सोचता
और
कभी खुद के अंदर सिमट जाना चाहता
इन्सान
और मैं मिलूंगा उससे
जैसे शीशे के सामने खड़ा
अपलक देखता रहूँगा उसको
और यही कहूंगा
इतना ही होता है
इतना ही मिलता है
और ये काफी है
चले चलो
लड़े चलो 

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