जुड़ता हूँ
तो होता हूँ पूरा
तू छिटक देती है
तो बिखर जाता हूँ कांच की किरचों की तरह
फिर हर क़तरा चुनता हूँ
उठाता हूँ
उसको जोड़ कर पूरा बनाता हूँ
ये क्या इश्क़ है
जो होता है
हर बार तुझसे
पर खुद से हो नहीं पाता
हिन्दुस्तानी कवितायेँ - आनंद झा
जुड़ता हूँ
तो होता हूँ पूरा
तू छिटक देती है
तो बिखर जाता हूँ कांच की किरचों की तरह
फिर हर क़तरा चुनता हूँ
उठाता हूँ
उसको जोड़ कर पूरा बनाता हूँ
ये क्या इश्क़ है
जो होता है
हर बार तुझसे
पर खुद से हो नहीं पाता
खाली सीना
तेरी याद
तेरा होना जैसे ओस सा
लम्हे में शुरू
लम्हे में ख़त्म
फिर उन यादों की तहें
जिन्हें खोलना
इस्तरी करना और रख देना
अपने ज़हन के किसी हिस्से में
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ये बेमतलब है
या ये तरीका है हमारे होने का
कितना दुखता है
ये वक़्त
कितने अकेले हैं सभी
सब डरे से हैं
कोई उनको समझता ही नहीं
वो समझ जाएं किसी को
इतना वक़्त नहीं
किसी के मरने
की शर्त पर
हर रोज़
मैं खरीदता हूँ ज़िंदगी
और खोजता फिरता हूँ
उसमें भरने के लिए रंग
क्या कोई और वक़्त
कभी था
मुक्कमल सा
जिसकी शक्ल हमने
फिल्मों भी भी देखी थी
जहाँ लोग अच्छे और बुरे होते थे
यहाँ तो सारे हादसों के मारे
बुझे थके हारे
लड़ते काटते कटते
लाचार लोग हैं
अपनी ही कहानी में
गिरफ्तार लोग हैं
कतरा ले कर जाइयो
हम उसमें रक्खे बैठे हैं
जितना है अपना
जाता है
तो बह जायेगा
दिल दरिया
फिर खर्च ज़िंदगी कर के हम
किसी नदी किनारे बैठेंगे
जैसे भी होगा
गायेंगे
जो बचा है
जीते जाएंगे