बुधवार, 21 अगस्त 2024

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 जुड़ता हूँ 

तो होता हूँ पूरा 

तू छिटक देती है 

तो बिखर जाता हूँ कांच की किरचों की तरह 


फिर हर क़तरा  चुनता हूँ 

उठाता हूँ 

उसको जोड़ कर पूरा बनाता हूँ 


ये क्या इश्क़ है 

जो होता है 

हर बार तुझसे 

पर खुद से हो नहीं पाता 

मंगलवार, 19 जुलाई 2022

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कुछ नहीं बदलेगा 
वक़्त नहीं बदलेगा 
लोग बदलेंगे 
पर क्या बदलेंगे ?

दूरियों का डर होगा 
थकान की हद पे 
पैसो का बिस्तर होगा 
लोग तन्हा होंगे 
परेशां होंगे 

तुम बदलोगे 
मैं बदलूंगा 
हम अपने रास्तों में 
सफर ढूंढेंगे 
हम लोगों में 
अपने टूटे हुए 
घर ढूंढेंगे 

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खाली सीना 

तेरी याद 

तेरा होना जैसे ओस सा 

लम्हे में शुरू 

लम्हे में ख़त्म 

फिर उन यादों की तहें 

जिन्हें खोलना 

इस्तरी करना और रख देना 

अपने ज़हन के किसी हिस्से में 

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ये बेमतलब है 

या ये तरीका है हमारे होने का  

रविवार, 6 जून 2021

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 कितना दुखता है 

ये वक़्त 

कितने अकेले हैं सभी 

सब डरे से हैं 

कोई उनको समझता ही नहीं 

वो समझ जाएं किसी को 

इतना वक़्त नहीं 


किसी के मरने 

की शर्त पर 

हर रोज़ 

मैं खरीदता हूँ ज़िंदगी 

और खोजता फिरता हूँ 

उसमें भरने के लिए रंग 


क्या कोई और वक़्त 

कभी था 

मुक्कमल सा 

जिसकी शक्ल हमने 

फिल्मों भी भी देखी  थी 

जहाँ लोग अच्छे और बुरे होते थे 


यहाँ तो सारे हादसों के मारे 

बुझे थके हारे 

लड़ते काटते कटते 

लाचार लोग हैं 

अपनी ही कहानी में 

गिरफ्तार लोग हैं 

शुक्रवार, 21 अगस्त 2020

aakhir

कतरा ले कर जाइयो 

हम उसमें रक्खे बैठे हैं 

जितना है अपना 


जाता है 

तो बह जायेगा 

दिल दरिया 


फिर खर्च ज़िंदगी कर के हम 

किसी नदी किनारे बैठेंगे 

जैसे भी होगा 

गायेंगे 

जो बचा है 

जीते जाएंगे  

सोमवार, 15 जून 2020

neend

देर रात तक
मेरा दिमाग
एक रेलवे प्लेटफार्म की तरह बिछा होता है
कुछ ख्याल चलते रहते हैं पैसिंजरों की तरह टहलते रहते हैं
पूरी रात
कुछ यादें ट्रेनों की तरह आती हैं
नींद नहीं आती

ये उम्र
इतनी लम्बी थकान
के कोई सो भी जाये बरसों
तो ख़त्म न हो

सोचता हूँ के कर लू वास्ता
फूल पत्तियों से
लोगों से बाज़ आऊं

क्या वक़्त है
जो टंगा रहता है
दम घोंटता है
गुज़रता भी नहीं
बदलता भी नहीं 

शुक्रवार, 22 मई 2020

April 2020

सड़कें थीं अंतहीन
नंगे पैर थे
और सर पर
एक पूरा घर
और चिलचिलाती धूप

क्यों लोग थालियां बजाते रह गए
जब रेलगाड़ी कुचल गयी उसका चेहरा

क्यों उसके खेतों का गेहूं
सड़ गया सरकारी गोदामों में
पर नहीं आया उसके काम

कभी जिन इमारतों के लिए
उसने ईटें ढोयीं
उनके दरवाज़े नहीं खुले
उसके लिए

किसका था ये मुल्क
जो उसका न हुआ
किसके थे ये लोग
जो उसके न हुए 

शनिवार, 11 जनवरी 2020

insomnia

कई रातों के बेसिरपैर सपने
दस्तावेज़ों की तरह गुथे हुए
रखे हैं ऐसे
जैसे मालगाड़ी का एक खाली डब्बा
एक अध् गुमी रेल की पटरी पर
खड़ा रहता है

ऐसा इंतज़ार किसका किया है

लोगों का, हालातों का, चीज़ों का, मौसमों का

कौन छांटेगा ये बैरंग सपने

रवाना करेगा इन्हें
नींद की डाक पर 

arzi

मैं तुम्हारी मोहब्बतों के काबिल हूँ
मुझसे इश्क़ करो
बड़ा इंतज़ार किया है मैंने
तुम्हारे तैयार होने का
मुझे बना लो अपनी सारी दुनिआ

बस मेरी बात सुनो
बस मेरा ज़िक्र करो

मुझे दे दो अपने ये सारे मौसम

ये गुनाहे अज़ीम भी कर लो
ये गुनाहे अज़ीम भी कर लो 

subah

इस तरह बना लें
हम अपनी सुबह
टेलीफोन के तारों में पिरो कर

चलें काफी दूर
और देखते चलें
क़दमों के तले
पार्कों में बिखरे हुए
यतीम लम्हों को
घर ले चलें