वो
हर रोज़
थोड़ा घिसता रहा
थोड़ा रिसता रहा
इंसान
बने रहने की
छोटी छोटी कोशिशें
करता रहा
चीखता रहा
फिर चुप होता रहा
फिर सोचता रहा
के कल क्या करना है
परसों क्या करना है
कुछ भी तो नहीं बदल पाया
न खुद के बाहर
न अंदर
मुझे मिलेगा हर रोज़
मेट्रो की कतारों में
मानी तलाशता
माज़ी से लड़ता
शहर से हार कर भाग जाना चाहता
डिस्काउंट लेता
बीमार पड़ता
कभी महान बनने के बारे में सोचता
और
कभी खुद के अंदर सिमट जाना चाहता
इन्सान
और मैं मिलूंगा उससे
जैसे शीशे के सामने खड़ा
अपलक देखता रहूँगा उसको
और यही कहूंगा
इतना ही होता है
इतना ही मिलता है
और ये काफी है
चले चलो
लड़े चलो
हर रोज़
थोड़ा घिसता रहा
थोड़ा रिसता रहा
इंसान
बने रहने की
छोटी छोटी कोशिशें
करता रहा
चीखता रहा
फिर चुप होता रहा
फिर सोचता रहा
के कल क्या करना है
परसों क्या करना है
कुछ भी तो नहीं बदल पाया
न खुद के बाहर
न अंदर
मुझे मिलेगा हर रोज़
मेट्रो की कतारों में
मानी तलाशता
माज़ी से लड़ता
शहर से हार कर भाग जाना चाहता
डिस्काउंट लेता
बीमार पड़ता
कभी महान बनने के बारे में सोचता
और
कभी खुद के अंदर सिमट जाना चाहता
इन्सान
और मैं मिलूंगा उससे
जैसे शीशे के सामने खड़ा
अपलक देखता रहूँगा उसको
और यही कहूंगा
इतना ही होता है
इतना ही मिलता है
और ये काफी है
चले चलो
लड़े चलो
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