चाक दामन परेशां सी
मजलूम आवाजें 
नींद से पहले 
अपने सीने से आती लगती हैं 
खुद के कानों पे देता हूँ थपकियाँ 
पंखे से कहता हूँ आज रात सुला दे लोरी देकर 
कल रात तक कुछ इंतज़ाम कर लेंगे 
नीद से कब तक रस्म ओ राह न हो 
क्या बताऊँ कौन नामुराद मेरे अन्दर छिप कर 
चीखता रहता है अँधेरे सन्नाटों में 
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सच के टूटे टूटे टुकड़े 
तलवों पे चुभ जायेंगे 
फर्श पे धब्बे हैं सिसकियों के कई 
साफ़ नहीं करते हो अपना कमरा 
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रेंग के कल तक जायें कैसे 
कितनी दूर सुबह है अपनी 
कितने पास अँधेरे अपने 
