-मुशायरा-
हिन्दुस्तानी कवितायेँ - आनंद झा
सोमवार, 20 सितंबर 2010
shatranji
काला सफ़ेद
जैसा दिन
बनता जाये शतरंजी
ये शह वो मात
पापड़ sabzi दाल भात
tire में जमे पानी जैसा
सड़ता जाये शतरंजी
भूरा है सब
कैसे खेले
कौन बिछाये शतरंजी
untitled
सांस बुनते रहे थे काटों पे
धडकनों के दस्ताने
पूरे आते हैं उनके हाथों में
गुज़र जायेंगी सर्दियाँ एक दूजे के भरोसे
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